विजयादशमी पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लखनऊ के ऐतिहासिक ऐशबाग के रामलीला मैदान में अपने भाषण की शुरूआत जय श्री राम और भाषण की समाप्ति जय जय श्री राम के उद्घोष से की तो ऐसा लगा की स्वतंत्रता के 70वें साल में भारत संकीर्ण धर्मनिरपेक्षता से आगे बढकर असली धर्म निरपेक्षता को अपनाने की ओर आगे बढ रहा है।
सभा में मौजूद लोगों की भीड ने प्रधानमंत्री के उद्घोष के साथ जब जयघोष किया तो इस बात की पुष्टि भी हो गई की सचमुच भारत बदल रहा है। भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाने के पीछे इस देश के संविधानवेत्ताओं की यह गहरी समझ थी कि इस देश में सभी धर्मों का सम्मान हो और सभी का समुचित विकास भी।
वर्तमान में दुनिया में सबसे बडे लोकतंत्र भारत को एक उदार धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में पहचान तो मिली है, लेकिन हकीकत तो यह है कि स्वतंत्र भारत में अधिकांश समय तक सत्तारूढ रही राजनीतिक पार्टियों ने बहुसंख्यकवाद को हावी न होने देने की संकीर्णता को लेकर इस धर्म निरपेक्षता के साथ खूब खिलवाड किया।
उन्होंने लगातार देश की पंथ निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता को अपने ढांचे में ढाला और अन्ततः इस देश की जनता इस बात को समझ गई की सिपहसालारों की यह धर्मनिरपेक्षता नकली है और यही कारण है कि देश में भाजपा का उभार हुआ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस पार्टी के नहीं वरन् देश के एक सशक्त और लोकप्रिय नेतृत्व भी बने ।
स्वतंत्र भारत की शुरूआत में आदर्श धर्म निरपेक्षता का आलम यह था कि 1951 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के जिर्णोंद्धार में शामिल होने जा रहे थे, तब पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति से मंदिर का उद्घाटन न करने का आग्रह करते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को इससे बचना चाहिए, लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू के आग्रह को नजर अंदाज कर मंदिर का उद्घाटन किया और कहा की भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है।
भारत की धर्म निरपेक्षता पर सवाल न उठें इसके प्रति पंडित नेहरू इतने सजग थे की उन्होंने सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुर्नस्थापना का काम देख रही कमेटी से खुद को अलग कर लिया था।
भारत में धर्म निरपेक्षता यहां के जनमानस के आचार-विचार में रही है, लेकिन सत्ता में रही अधिकांश राजनीतिक पार्टियों ने धर्म निरपेक्षता मजबूत करने के लिये बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों से समझौता किया, यहां तक की सुधार के लिए उनकी जीवन पद्धति को प्रभावित भी किया, हालांकि इसके उजले परिणाम भी हुए, लेकिन राजनेताओं ने अन्य धर्मों से लगातार दूरी बनाऐं रखी। इस प्रकार भारत के पुर्ननिर्माण और विकास के लिये किसी एक धर्म में सुधार को लगातार लक्ष्य पर रखना अन्ततः कांग्रेस के पराभव का कारण बन गया।
इंदिरा गांधी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल को भेजने की हडबडी हो या राजीव गांधी द्वारा मुस्लिम धर्म गुरूओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम 1986 पारित करने की जल्दबाजी अन्ततः इस राष्ट्र में कट्टरपंथी शक्तियों को मजबूत करने वाली ही साबित हुई। हालात यहां तक बिगडे की खाडी युद्ध के दौरान जब अमेरिकी वाहनों को भारत में ईंधन उपलब्ध कराया गया इसे मुस्लिम विरोध से जोडकर कांग्रेस के समर्थन की सरकार की बलि दे दी गई।
इस दौर के विपक्ष के कद्दावर नेता राहुल गांधी हनुमानगढी तो जाते हैं, लेकिन रामलला जाने से उन्हें गुरेज है, यह वहीं रामलला है जिसके पट उनके पिता राजीव गांधी ने खुलवाए थे। इस समूचे ऐतिहासिक घटनाक्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र भारत में अधिकांश समय तक सत्ता में रही कांग्रेस बहुसंख्यकों के धार्मिक रीति-रिवाजों से इस आधार पर दूर रही की कहीं विश्व में यह संदेश नहीं जाए की भारत की धर्मनिरपेक्षता नकली है।
वास्तव में भारत एक ऐसा दुर्लभ लोकतांत्रिक राष्ट्र है जहां लम्बे समय तक बहुसंख्यक धर्म के प्रति आग्रह न रखने के बावजूद कांग्रेस लम्बे समय तक सत्ता में बनी रही। अफसोस इस बात का है की वर्तमान में जब यह राजनीतिक पार्टी रसातल की ओर जा रही है फिर भी इसके नुमाईंदे यह समझने में नाकाम रहे हैं कि धर्म निरपेक्षता के प्रदर्शन का मतलब बहुसंख्यको के धर्म से दूरी कतई नहीं है।
बहरहाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दशहरे के अवसर पर लखनऊ में जय श्री राम का उद्घोष किया तो विपक्ष चाहे इसे उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव से जोडकर क्यों न देखें, लेकिन सच तो यह है कि पहली बार किसी राजनेता ने देश के बहुसंख्यकों की नब्ज को पकडा है और वें अपनी सभ्यता और संस्कृति को सही मायनों में स्थापित करने को वचनबद्ध भी नजर आते हैं।
क्या किसी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री को ऐसा करना चाहिए, जैसा करने से पहले प्रधानमंत्री ने राजेन्द्र प्रसाद को रोका था। रामचन्द्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में लिखा है, नेहरू सोचते थे कि सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक जीवन में धर्म या धर्मस्थलों से नहीं जुडना चाहिए, वहीं राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए।
धर्म हमारी आस्था और जीवन पद्धति से जुडा होता है, धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। भारत में वैदिक धर्म को माना जाता है और हमारी जीवन पद्धति और सोच में वसुधैव कटुम्बकम् की भावना रही है। स्वतंत्रता के पहले भी भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते थे, दुनिया के अधिकांश धर्मों की जन्मस्थली भारत ही है।
दुनिया में यहूदी धर्म को आक्रामक धर्म माना जाता है एवं दुनिया इसे संदेह की दृष्टि से देखती रही तब भी इस धर्म को मानने वाले इसराइल के बाद भारत को दूसरा घर मानते हैं। अतः हिंदू जीवन पद्धति से देश को अलग रखने की सोच वास्तव में संकीर्ण धर्म निरपेक्षता है। असली धर्म निरपेक्षता तो सभी धर्मों का सम्मान करना है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लखनऊ में रामलला का मंचन देखना और जय श्री राम का उद्घोष करना सराहनीय कदम है और इससे देश की धर्म निरपेक्षता मजबूत ही होगी। यह बात इस देश की कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को अब भी समझ आ जानी चाहिए कि बहुसंख्यकवाद से धर्मनिरपेक्षता को कोई खतरा कम से कम भारतीय जीवन पद्धति में तो नहीं है।
डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
https://www.sabguru.com/dont-compare-gorakshak-with-antisocial-element/
https://www.sabguru.com/bjp-became-viable-alternative-party-thanks-deendayal-upadhyay-says-pm-modi/