लखनऊ। समाजवादी पार्टी की बीते 2 दिनों से चल रही अंतर्कथा की पटकथा सपा के विभाजन के साथ समाप्त हुई। 30 दिसम्बर की शाम सपा मुखिया मुलायमसिंह यादव ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व राष्ट्रीय महामंत्री रामगोपाल यादव का 6 वर्ष के लिए कथित निष्कासन कर पार्टी के विभाजन की पटकथा लिख दी।
अखिलेश-रामगोपाल के पास अब और कोई मार्ग शेष नहीं रहा। अब करो या मरो की स्थित बन गयी है। ऐसे में वापस लौटते हैं या समर्पण करते हैं तो अपना राजनीतिक अस्तित्व समाप्त करेंगे। जबकि संघर्ष की स्थिति में या तो नया दल बनाकर चुनाव लड़ना होगा या समाजवादी पार्टी पर ही कब्जा जमाना होगा।
चुनावों में अखिलेश क्या करेंगे? यह तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु अधिक संभावना यही है कि कांग्रेस से चुनावी गठबंधन के इच्छुक अखिलेश यादव अब कांग्रेस से समझौता कर चुनाव लड़ें। बहरहाल सपा का विभाजन निश्चित हो चुका है। देखना है कि अखिलेश अब क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।
सपा की फूट के बाद यादवों पर विरोधी दलों की नजर
सूबे में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अब तक के सबसे बड़े और अचंभित कर देने वाले सियासी घटनाक्रम के बाद समाजवादी पार्टी जहां अपने नुकसान का आकलन करने में जुट गई है, वहीं विरोधी दलों को अब उसके वोटबैंक पर सेंध लगाने की सही मौका मिल गया है।
मुलायम और अखिलेश गुट में बंट चुकी सपा के इस मौजूदा परिदृश्य को लेकर सबसे ज्यादा असमंजस यादव समाज में है। यादव पार्टी का सबसे मजबूत वोटबैंक रहा है और मुलायम अपनी बिरादरी के सबसे बड़े नेता के रूप में लोकप्रिय हैं, लेकिन अब अखिलेश के निष्कासन के बाद इस समाज के भी दो हिस्सों में बंट जाने की प्रबल आशंका है।
मुलायम के सामने जहां अपने इस वोटबैंक को बचाए रखने की चुनौती होगी, वहीं अखिलेश इस कोशिश में होंगे कि अपने सियासी भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए वह भी इस बिरादरी को आकर्षित कर सके। इसके अलावा अब विरोधी दल भी बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश करेंगे।
हालांकि इस दिशा में काफी समय पहले से रणनीति पर काम किया जा रहा है। बसपा पहले से ही प्रदेश भर में पिछड़ा वर्ग सम्मेलन आयोजित कर रही है। पार्टी दलित और मुस्लिम वोटों की तरह ब्राह्मण और पिछड़ा वर्ग में भी सेंध लगाने की कोशिश में है, जिससे सरकार बनाने का रास्ता पूरी तरह साफ हो सके।
इसी तरह भाजपा भी पूरे प्रदेश में लगभग 200 पिछड़ा वर्ग सम्मेलन कर चुकी है। पार्टी ने इसमें लगभग 98 लाख से ज्यादा लोगों की भागीदारी का दावा किया है। ज्यादातर सम्मेलन में पार्टी ने गैर यादव पिछड़ी जातियों पर ही ध्यान केंद्रित रखा, लेकिन अब सपा में आए बिखराव के बाद उसकी नजर भी सूबे के इस वोटबैंक पर टिक गई है।
देखा जाए तो पार्टी ने पिछड़ा वर्ग सम्मेलन की ही तरह युवा सम्मेलन भी कराए हैं, जिनमें 4 लाख 70 हजार युवाओं के पार्टी से जुड़ने का दावा किया गया है। इनमें हर समाज के लोग बताये जा रहे हैं, जिसमें पिछड़ा वर्ग के युवाओं की भी बड़ी संख्या बतायी जा रही है।
दरअसल यूपी ऐसा राज्य है, जो देश की राजनीतिक दशा व दिशा को तय करता आ रहा है। यहां की राजनीति में जातिगत और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल चलता रहता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में लगभग 20 करोड़ की आबादी है, जिसमें 79.73 प्रतिशत हिंदू, 19.26 प्रतिशत मुस्लिम, 0.18 प्रतिशत ईसाई तथा 0.32 प्रतिशत सिख हैं।
सूबे के चुनावों में जातिगत समीकरण को खूब महत्त्व दिया जाता है। इसलिए जातिगत वोटबैंक की बात करें तो यहां अगड़ी जाति से 16 प्रतिशत और पिछड़ी जाति से 35 प्रतिशत वोट आते हैं, वहीं 25 प्रतिशत दलित, 18 प्रतिशत मुस्लिम, 05 प्रतिशत जाट और 01 प्रतिशत अन्य मतदाता तय करते हैं कि राज्य में सरकार किसकी बनेगी।
अगड़ी जाति में 8 प्रतिशत ब्राह्मण, 5 प्रतिशत ठाकुर और 3 प्रतिशत अन्य हैं, वहीं पिछड़ी जातियों में 13 प्रतिशत यादव, 12 प्रतिशत कुर्मी और 10 प्रतिशत अन्य हैं। प्रदेश की सियासत पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी को 30 प्रतिशत वोट मिलेंगे, उसकी जीत तय मानी जाती है।
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती 25 प्रतिशत दलित, 8 प्रतिशत ब्राह्मण और 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को अपनी पार्टी में जोड़ने में सफल रहीं थीं और यूपी में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी।
इसी तरह वर्ष 2012 में 35 प्रतिशत पिछड़ी जातियों सहित 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में सपा को सफलता मिली और उसकी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी। ऐसे में इस बार भी पिछड़ी जातियों पर सभी दलों ने अपना ध्यान केन्द्रित किया है और प्रमुख रूप से यादव उनके निशाने पर होंगे।
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