दुनिया के ख्यातिलब्ध खोजी पत्रकारों के एक समूह द्वारा पनामा पेपर्स से धनकुबेरों के वैश्विक वित्तीय लेन देन से संबधित जो खुलासा हुआ है, उसका असर दुनिया भर में देखने को मिल रहा है तथा इस खुलासे से भारत में भी खलबली मचना स्वाभाविक है।
खोजी पत्रकार समूह के इस खुलासे का उद्देश्य चाहे जो भी हो लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। देश में कालेधन को लेकर लंबे समय से घोषित व अघोषित अभियान चल रहा है। इस अभियान का हिस्सा देश के राजनेता भी हैं तो अन्य प्रतिष्ठित लोग भी।
देश के राजनेता अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार भले ही इस मुद्दे को चुनावी लाभ क आधार मानें तथा अन्य मुद्दों के साथ-साथ कालेधन के मुद्दे को भी आधार बनाकर उनके सत्तारोहण के बाद उनकी नजर में भले ही यह मुद्दा नेपथ्य में चला जाए तथा वह सत्ता के वशीभूत होकर सबकुछ भूल जायं। लेकिन कालेधन का मुद्दा आम देशवासियों के लिए आज भी उतना ही ज्वलंत व महत्वपूर्ण है।
देश में तमाम कोशिशों के बावजूद निरंतर बढ़ती आर्थिक विषमता यह सोचने के लिये मजबूर करने वाली है कि जब देश के संसाधनों के 95 प्रतिशत हिस्से पर 5 प्रतिशत खास लोगों अर्थात् धनकुबेरों का कब्जा हो जाएगा तथा उनकी ताकत निरंतर बढऩे के साथ ही वह पूरे सिस्टम को प्रभावित या तहस-नहस करने लगेंगे तो फिर देश की बाकी आबादी का क्या होगा तथा फिर तो उन्हें दो वक्त की रोटी मिलने के साथ ही उनका आशियाना रोशन होना भी इसी तरह मुश्किल बना रहेगा।
पनामा पेपर्स लीक सामने आने के बाद केन्द्र सरकार, रिजर्व बैंक द्वारा इस पूरे मामले की जांच कराने की बात कही जा रही है लेकिन अगर जांच-पड़ताल हुई भी तो इस बात की क्या गारंटी है कि ढाक के तीन पात की तर्ज पर इस मामले से जुड़ी सच्चाई सरकारी फाइलों में ही दफन न हो जाएगी तथा सच सामने आयेगा।
देश में निरंतर हो रहा कालेधन का प्रभाव भारतीय लोकतंत्र का खोट बढ़ाने के साथ-साथ देश की संपूर्ण व्यवस्था पर आम लोगों की आस्था को भी गहरी चोट पहुंचा रहा है तथा देशवासियों की उम्मीदें यही हैं कि जो भी कालेधन के शाहंशाह हैं, अगर वह स्वेच्छा व स्वप्रेरणा से अपने इस अकूत धन को जगजाहिर न करें तथा राष्ट्रनिर्माण, राष्ट्र उत्थान या दरिद्र नारायण के कल्याण में अपनी वांछित जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार न हों तो तो कानून की मदद से अर्थात् कानूनसम्मत ढंग से सरकार को खुद ही उनकी गिरेबान में हाथ डालकर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाए।
उनकी इस अकूत दौलत को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया जाए, जिससे इस धन का राष्ट्रहित व जनहित में बड़े पैमाने पर उपयोग हो। ताकि देश से आर्थिेक असमनता व गरीबी दूर करने में मदद मिले साथ ही इससे वह चिरपोषित अभिलाषा भी पूरी हो जाएगी, जिसके तहत कतिपय लोग येन केन प्रकारेण रातों रात अरब-खरबपति बनने की कोशिश करते हैं, उन्हें भले ही किसी की जेब काटनी पड़ी या कहीं डकैती डालनी पड़े।
लेकिन देश की सरकार ऐसा साहसिक कदम तभी उठा पाएगी जब वह राजनीतिक लाभ हानि की भावना को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ नैतिक प्रतिबद्धता से प्रेरित होकर काम करे फिर तो अंजाम को दृष्टिगत रखते हुए अगाज ही ऐसा होना चाहिए कि कालेधन कुबेरों पर शिकंजा कसने के सरकारी अंदाज से दुनिया ही आश्चर्य में पड़ जाए।
दुनियाभर के मशहूर लोगों के वित्तीय लेनदेन की पोल खोलने वाले पनामा पेपर्स ने जिस ढंग से एक करोड़ 15 लाख दस्तावेज लीक करने के दावे किए हैं तथा इससे जुड़े अंतर्राष्ट्रीय खोजी पत्रकार संघ द्वारा दावा किया किया है कि प्रतिष्ठित फर्म मोसैक फोन्सेका तमाम देशों के राजनेताओं और अन्य अमीरों के काले धन को छिपाने में मदद करता था, उससे स्पष्ट है कि भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों की आर्थिक मंदी व विपन्नता का कारण कालाधन ही है।
गैर कानूनी तरीके से कंपनी गठित कर उसमें काला धन छिपाने में यह जिस तरह से पांच सौ भारतीयों के नाम सामने आए हैं, वह चिंताजनक है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जांच पड़ताल की दिशा में परिणामदायक व प्रभावी कदम उठाए। जांच ड़ताल व कार्रवाई ऐसी होनी चाहिए कि कोई कसूरवार बचने न पाए और कोई बेगुनाह व्यक्त कानून के शिकंजे में फंसने न पाये पर कालेधन का पूरा सच अवश्य सामने आए।
सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं