हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के राजनेता भी बेहद अजीब हैं। इससे भी अजीब हैं यहां का कुछ कथित मीडिया। यहां मैं कुछ और कथित शब्द का इस्तेमाल इस कारण कर रहा हूं क्योंकि मीडिया का एक वर्ग ऐसा भी है जो राष्ट्रवादी सोच और राष्ट्रहित को प्राथमिकता देता है।
जहां तक राजनीतिज्ञों का सवाल है उनमें बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो देश की हर घटना, दुर्घटना को न तो सकारात्मक लेता है न देश हित को सर्वोपरि मानता है। ऐसे राजनीतिज्ञों की पूरी राजनीति केवल जाति, धर्म, पंथ, प्रांत क्षेत्र आदि पर निर्भर करती है।
इसमें घटना-दुर्घटनाओं को लेकर न तो मानवीय दृष्टिकोण को कोई प्राथमिकता है न संवेदनशीलता, घटना कितनी ही हृदयविदारक हो उसमें जाति अगड़ा, पिछड़ा आदि की राजनीति शुरु करना ही इनका काम है।
कैसे न कैसे देश का माहौल बिगाड़ा जाए और कैसे न कैसे राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर काम करने वालों को बदनाम किया जाए। ताजी घटना पर विचार करें तो यह हैदराबाद के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के एक छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से जुड़ी है।
26 वर्षीय रोहित हैदराबाद के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर थे। तीन अगस्त 2015 को विश्वविद्यालय परिसर में हुए एक विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों के दो दलों में संघर्ष हुआ था। झगड़े का कारण यह बताया जाता है कि रोहित व उसके साथी कुछ अन्य छात्र अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन से संबंधित थे।
दूसरा गुट अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का था। अंबेडकर स्टूडेंट्स से जुड़े गुट ने एक प्रदर्शन के दौरान याकूब मैमन के समर्थन में नारे लगाए जिसका विद्यार्थी परिषद ने विरोध किया। मारपीट हुई एक छात्र गंभीर घायल हुआ। शिकायत केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रय तक पहुंची, उन्होंने मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखा। इस बीच मामला कोर्ट में भी जा पहुंचा।
विश्वविद्यालय हमला करने वाले तथा याकूब मैमन के पक्ष में नारे लगाने वाले पांच छात्रों को निलंबित कर देता है। इसमें एक छात्र रोहित वेमुला 18 जनवरी को फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेता है।
बस यहीं से शुरु हो जाती है राजनीति। आत्महत्या करने वाला एक छात्र था हमारे राजनीतिज्ञों के लिए यह बड़ी बात नहीं, उनके लिए बड़ी बात यह है कि वह दलित था। घटना के पीछे की सच्चाई क्या है? झगड़ा क्यों हुआ? क्यों एक विश्वविद्यालय का कैंपस ऐसी राजनीति जिसका कि छात्रों से कोई लेना-देना नहीं का अखाड़ा कैसे बना?
यह सब बातें दरकिनार कर दी गईं और तो और हमारे देश के एक साहित्यकार ने तो यहां तक आग में घी डालने का काम किया कि अपनी डीलिट् की डिग्री लौटाने तक की घोषणा कर दी। बड़े-बड़े नेता जातिगत भेदभाव का आरोप लगाने पर उतारू हो गए। आखिर किसी छात्र की आत्महत्या पर इस तरह की राजनीति क्यों?
उत्तर स्पष्ट है कि इसकी आड़ में राजनेताओं को दलितों का वोट बैंक दिखाई दे रहा है। उन्हें दिखाई दे रहे हैं, कुछ समय बाद कई प्रदेशों में होने वाले विधानसभा चुनाव, यदि चुनाव में यह मुद्दा बनता है तो विकास का मुद्दा, राष्ट्रहित की बात सहित तमाम स्थानीय मुद्दे गौण हो जाते हैं।
कौन भूल सकता है बीते वर्ष बिहार चुनाव के समय खेले गए असहिष्णुता के कार्ड को। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत मोदी सरकार की विकास नीति को दरकिनार करने के लिए असहिष्णुता की बात को पुरजोर तरीके से उछाला गया था।
इसमें वामपंथी और कांग्रेसी विचारधारा से प्रेरित साहित्यकार, कलाकार, शिक्षाविद् आदि सब कूद पड़े थे और ऐसा माहौल बना डाला कि देश असहिष्णुता से ग्रस्त है, प्रधानमंत्री मोदी इसके सरगना हैं, अल्पसंख्यकों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। बड़ी संख्या में साहित्य जगत से जुड़े लोगों ने अपने पद्म सम्मान लौटा कर बखेड़ा खड़ा कर दिया था। इनका साथ दिया था उस कथित मीडिया संस्थानों ने जो देश में राष्ट्रवादी शक्तियों का शासन पसंद नहीं करते।
परिणाम सबने देखा, बिहार में नरेन्द्र मोदी के विकास का नारा धरा का धरा रह गया और लालू जैसे भ्रष्ट राजनीतिज्ञ से हाथ मिलाकर नीतीश अपने इरादों में सफल रहे। यह राजनीतिक शक्तियां एक बार फिर देश में ऐसे ही मौकों की तलाश में हैं। पहले अखलाक की हत्या को असहिष्णुता से जोड़ कर प्रचारित किया गया था और अब एक छात्र की आत्महत्या को दलित शोषण का मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है।
अशोक वाजपेयी ने डीलिट् की डिग्री लौटाकर उसी तरह का वातावरण निर्मित करने की कोशिश की है जैसा कि असहिष्णुता का झूठा राग अलाप-अलाप कर वामपंथी व कांग्रेसी संरक्षण में पले-बढ़े साहित्यकारों ने अपने सम्मानों को लौटाकर की थी।
यहां लिखना उपयुक्त होगा कि यह वही अशोक वाजपेयी हैं जो भोपाल गैस त्रासदी के समय कवि सम्मेलन आयोजित करके चर्चा में आए थे। उस समय हजारों लोगों की मौत पर भी इनका दर्द नहीं जागा था न इन्होंने डिग्री वापस की थी।
साफ है यह वही लोग हैं जिनका उद्देश्य केवल देश का माहौल बिगाडऩा है जिसका कि लाभ एक विशेष प्रकार की राजनीति करने वालों को मिल सके। इन्हें किसी छात्र की मौत से कोई पीड़ा नहीं। यदि वास्तव में इन्हें पीड़ा होती तो इस पर जातिगत राजनीति नहीं की जाती, इसलिए हो-हल्ला नहीं मचाया जाता कि वह दलित छात्र था, मामला नि:संदेह बहुत संवेदनशील है।
एक छात्र ने आत्महत्या की है। इसके पीछे क्या कारण हैं? वास्तव में यह आत्महत्या है या हत्या इस पर भी सवाल उठ रहे हैं, छात्र को किसने आत्महत्या के लिए प्रेरित किया? यह भी देश जानना चाहता है। कौन हैं वह लोग जो एक छात्र को मानसिक रूप से इस स्तर तक ले गए कि उसने आत्महत्या कर ली।
क्या हमारे राजनीतिक दलों ने कोई ऐसा पैमाना बनाया है कि किस मुद्दे पर कब राजनीति होनी चाहिए कब नहीं। अगर नहीं बनाया है तो देश की सेहत और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए क्या यह जरुरी नहीं?
जहां तक जानकारी है उसके अनुसार अभाविप के स्थानीय प्रमुख सुशील कुमार ने रोहित की आत्महत्या पर अफसोस जताया है।
केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने दो सदस्यों की जांच टीम भी गठित कर दी है, केन्द्रीय सामाजिक एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने अपने मंत्रालय की एक सदस्य को जांच के लिए नियुक्त किया है और इंसाफ होना चाहिए यह बात भी कही है।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग भी मामले की जांच कर रहा है। ऐसी स्थिति में इस प्रकरण पर हो-हल्ला मचाना राजनीति करना आखिर कहां तक उचित है?
प्रवीण दुबे