राजस्थान को सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के समृद्ध प्रदेशों में गिना जाता है। यहां की संस्कृति जहां त्याग, बलिदान एवं शौर्य की अद्भुत दास्तान है वहीं कला, संगीत, साहित्य एवं सांस्कृतिक प्रतीकों एक विशाल सागर है।
यहां संस्कृति तो गांव-गांव ढांणी-ढांणी, चैपाल चबूतरों, महल-प्रासादों में ही नहीं, वह तो घर-घर जन-जन में समाई हुई है। यहां की संस्कृति का स्वरूप रजवाड़ों और सामन्ती व्यवस्था में दिखाई देता रहा है, तो यहां की संस्कृति को जीवंत बनाए रखने एवं उसके वास्तविक रूप को बचाए रखने का श्रेय ग्रामीण अंचल को भी जाता है, जहां आज भी यह संस्कृति जीवित है।
यहां की संस्कृति में कला-कौशल, शिल्प, महल-मंदिर, किले-झोंपडियों से भी समृद्ध है, जो हमारी संस्कृति के दर्पण है। राजस्थानी पोशाक, त्यौहार, रहन-सहन, तहजीब-तमीज सभी देश और दुनिया के लिये आकर्षण का केन्द्र है।
इस जादुई भूमि में रेगिस्तान का सौन्दर्य, वीर पुरूष और स्त्रियों का नम्र और सहृदयतापूर्ण आचरण, विविध संस्कृति, और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा हुआ है। रंगीन, आतिथ्यता, और शुद्ध आनंद की भावना-इस भूमि के हर नुक्कड़ में आपको देखने को मिलेगी, जो सैलानियों को स्वर्ग का अनुभव कराता है।
विशेषतः राजस्थानी संस्कृति अपने खान-पान, व्यंजन एवं आहार से भी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनाये हुए है। आज भी देश और दुनिया के लोगों में राजस्थानी व्यंजनों एवं संतुलित खाद्य पदार्थों के प्रति गहरा आकर्षण देखा जा सकता है।
राजस्थानी पाकशैली बहुत ही संवेदनशील है। आज जबकि देश में तेजी से फैलती जा रही पाश्चात्य संस्कृति में फास्टफूड कल्चर ने सुरसा की तरह मुंह पसार लिया है। छोटे-छोटे कस्बों में भी ब्रेड-बटर, चिकन-आमलेट, पेस्टी, बर्गर, पिज्जा, जैम, जैली तथा साॅस का प्रचलन होने लगा है।
तबभी राजस्थान में सुबह के नाश्ते से लेकर रात्रि के भोजन तक दिनभर चलने वाले सभी खाद्य पदार्थ एवं व्यंजन जहां अपनी संस्कृति के अनुरूप सुपाच्य, पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्द्धक एवं गुणवत्तायुक्त है।
मैगी पर छिड़ी बहस एवं रोक के बाद डिब्बाबंद पदार्थों एवं तैयार चमकदार, साफ एवं सुन्दर दिखने वाले खाद्य पदार्थ चाहे वे फल हो, सब्जी हो या अन्य चिप्स, नूडल्स, चाॅकलेट, पीजा- मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकाकर होते हैं।
इन उत्पादों को बनाने में प्रायः खराब कम गुणवत्तायुक्त, घटिया एवं खराब सामग्री का उपयोग होता है। इस कारण भी फास्टफूड जीवन के लिए खतरा बन गया हैं। इनमें उच्च कैलोरीयुक्त वसा, चीनी एवं कृत्रिम रंगों का उपयोग होता है।
जबकि राजस्थानी व्यंजन लड्डू, मठरी, खाखरे, भुजिए, नुकती, सांगरी की सब्जी, आचार, लहसुन की चटनी आदि को लंबे समय तक सुरक्षित बनाने के लिए किसी रसायन का प्रयोग नहीं होता है। न ही कृत्रिम रंगों, कृत्रिम सुगंधों, मिलावटी दूध-खोये एवं घी का प्रयोग होता है।
कृत्रिम रंगों एवं सुगंधों के माध्यम से इन व्यंजनों के दोषों को ढका जाता है जो मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण दोनों के लिए अत्यंत घातक है। इनके उपयोग से पेट के रोगों यथा- एसिडिटी एवं अल्सर से लेकर, त्वचा रोग, जोड़ों के रोग, कैंसर, उच्च रक्तचाप, मधुमेह एवं मोटापा जैसी बीमारियां बढ़ रही है।
इसलिए राजस्थानी आहार एवं व्यंजन फास्टफूड का एक विकल्प हो सकता है। धन की बचत, मनुष्य के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की दृष्टि से भी राजस्थानी व्यंजन अधिक उपयोगी हैं। इन विशेषताओं के बावजूद राजस्थानी व्यंजन सीमित दायरे में ही सिमट कर रह गए हैं।
उचित मार्केटिंग को अपनाया जाए तो राजस्थानी व्यंजन संपूर्ण विश्व में अपनी विशेषताओं के कारण अपना साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। जरूरत है सरकार इस दिशा में प्रोत्साहन योजनाओं को शुरू करें। जिस तरह पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रयत्नशील रहती है उसी तरह राजस्थानी व्यंजन को विश्वव्यापी बनाकर न केवल इस प्रांत की संस्कृति को व्यापक बनाया जा सकता है बल्कि रोजगार के अवसरों को बढ़ावा दिया जा सकता है।
कई बार भारतीय सामान विदेशों से वापस कर दिया जाता हैं इस आधार पर कि उनके मानकों पर खरा नहीं उतरता। अफसोस यह है कि हमारे तो मानक ही नहीं हैं वर्ना हमारे बाजार चीन के घटिया सामान एवं विदेशी कम्पनियों से निर्मित हानिकारक खाद्य पदार्थों से पटे न होते।
राजस्थान के परम्परागत आहार एवं व्यंजन, पर्यावरण एवं संस्कृति के मिलन बिंदु हैं। राजस्थान का परम्परागत आहार, देश के शेष भागों से काफी भिन्न होने के साथ-साथ स्वास्थ्यवर्द्धक भी है। राजस्थानी खाना मूलतः शाकाहारी भोजन होता है और यह अपने स्वाद के कारण सारे विश्व में प्रसिद्ध है, प्रचलित नहीं।
राजस्थान में प्रचलित एवं प्रयुक्त होने वाला हर व्यंजन एवं फूड सुस्वाद होने के साथ-साथ पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक है। यहां के प्रत्येक भाग में प्रयुक्त होने वाली बाजरे की मोटी रोटी ग्रामीण जीवन का मुख्य फूड है लेकिन यह समृद्ध परिवारों के में भी अपनी गुणवत्ता के कारण बहुप्रचलित है।
इसी तरह गेहूं की मोटी रोटी को टुक्कड़ अथवा टिक्कड़ कहा जाता है। टुक्कड़ के भीतर घी नहीं भरा होता है जबकि टिक्कड़ के भीतर घी भरा हुआ होता है। पतली चपातियों को सुखाकर खाखरे बनाये जाते हैं। ये कई दिन तक चलते हैं अतः यात्रा, तीर्थाटन एवं विदेश गमन में इनका अधिक महत्व होता है।
खाखरे कई प्रकार से बनाए जाते हैं। कुछ खाखरे बिल्कुल सादे होते हैं तो कुछ मसालें एवं दालों से युक्त एवं तले हुए। गेहूं, चावल तथा मक्का के आटे से कई प्रकार के खीचीये बनाये जाते हैं। इन्हें तलकर अथवा आग पर सेक कर खाया जाता है। इनका भी लंबे समय तक भण्डारण किया जा सकता है तथा नाश्ते के रूप में खाया जाता है। शहरी क्षेत्रों में पूड़ी, कचौड़ी एवं परांठों का भी बड़े स्तर पर भी प्रचलन है।
राजस्थान में गेहूं, बाजरा, चावल एवं मक्का से बनने वाले विभिन्न प्रकार के दलिये प्रयुक्त किये जाते हैं। बाजरी एवं मोठ की दाल के योग से खीच अथवा खीचड़ा बनता है। गेहूं के दलिए व गुड़ के योग से बनी लापसी विवाह आदि अवसरों पर परोसी जाती है।
राजस्थान में साबूत गेहूं को उबालकर घूघरी बनाने का भी प्रचलन है। यह मांगलिक अवसरों पर प्रसाद के रूप में वितरित होती है तथा किसी मांगलिक अवसर पर एकत्रित हुई महिलाओं में भी बांटी जाती है। आदिवासियों में मक्का का दलिया छाछ में उबाल कर बनाया जाता है। इसे कई दिनों तक खाया जा सकता है।
दाल-बाटी-चूरमा राजस्थान का विशिष्ट व्यंजन माना जाता है। छाछ तथा बाजरी के योग से बनी राबड़ी, आटे व दाल के योग से बने दाल-ढोकले शहरों एवं गांवों में चाव से खाये जाते हैं। राब अथवा राबरी छाछ में बाजरी के आटे के योग से बनाई जाती है। इसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। यह ग्रीष्म ऋतु का भोजन है। आटे और नमक का काफी पतला हलुआ पटोलिया कहलाता है। सुपाच्य होने के कारण इसे बीमार मनुष्य को खाने के लिए दिया जाता है।
राजस्थान में जहां परम्परागत खाद्य पदार्थों की समृद्धता एवं उपलब्धता है वहीं यहां के पेय-पदार्थों का भी एक विशेष आकर्षण है। दूध-दही की लस्सी तथा छाछ का अधिक प्रचलन है। शहरी क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में जलजीरा एवं माखनिया लस्सी का अधिक प्रयोग होता है।
कच्चे आम से बनाया रस एवं ईमली का पानी भी यहां घर-घर में उपयोग होता है, गर्मी के दिनों में कच्चे आम के रस को बहुत उपयोगी माना गया है। गाय, भैंस एवं बकरी का दूध बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होता है। कुछ चरवाहा जातियां सांड (मादा ऊंट) व भेड़ का दूध पीने, चाय बनाने एवं औषधि के रूप में प्रयुक्त करती है।
राजस्थान में तीज त्योहार, अतिथि के आगमन, विवाह, जापा, नामकरण आदि अवसरों पर लापसी, विभिन्न प्रकार के लड्डू, नुकती, सीरा (हलुआ), मावा, पंजीरी, खीर, सत्तू, घेवर आदि बनाने का प्रचलन है। ये मिठाइयां घर में बनी होने के कारण सस्ती एवं मानव स्वास्थ्य के लिए निरापद होती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी मुख्यतः घरों में बनी मिठाइयां व्यवहृत होती हैं। यह राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति का सबसे बड़ा उदाहरण है। जोधपुर में रबड़ी के लड्डू, प्याज की कचैडी एवं मावे की कचैडी, बीकानेर में रसगुल्ले एवं भुजिया, ब्यावर में तिलपट्टी तथा मालपुए, जैसलमेर में गोटमां, किशनगढ़ में पेठे, मेड़ता व चिडावा में दूध के पेडे, सांभर में फीणी, लूणी में केसरबाटी, नावां में गोंद के पापड़, खारची में रबड़ी, खुनखुना में जेलेबी, पाली में गूंजा, पुष्कर तथा नागौर में मालपुए बनते हैं जो देश-विदेश में भी जाते हैं।
घेवर छप्पन भोग के अन्तर्गत प्रसिद्ध व्यंजन है। यह मैदे से बना, मधुमक्खी के छत्ते की तरह दिखाई देने वाला एक खस्ता और मीठा पकवान है।, सावन माह की बात हो और उसमें घेवर का नाम ना आए तो कुछ अटपटा लगेगा। घेवर, सावन का विशेष मिष्ठान माना जाता है। सावन में तीज के अवसर पर बहन-बेटियों को सिंजारा देने की परंपरा काफी पुरानी है, इसमें चाहे कितना ही अन्य मिष्ठान रख दिया जाए लेकिन घेवर होना अवश्यक होता है।
राजस्थान के कुछ नमकीन व्यंजनों ने देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है जिनमें बीकानेर के भुजिया एवं पापड़, सरदारशहर के पापड़-बड़ी, जोधपुर की प्याज की कचैरी एवं मिर्ची-बडे प्रसिद्ध है। प्याज की कचैरी एवं मिर्ची-बडे के लिए जयपुर में रावत मिष्टान्न भण्डार एवं जोधपुर में जनता स्वीट हाउस प्रसिद्ध है। घेवर एवं फीणी के लिए जयपुर की लक्ष्मी मिष्ठान्न भण्डार प्रसिद्ध है।
हल्दीराम एवं बीकानेरवाला ने राजस्थानी मिष्ठान एवं नमकीन को देश-दुनिया में लोकप्रिया बनाया है। चैखी ढ़ाणी की फूडचेन ने परम्परागत राजस्थानी भोजन को व्यापकता दी है, लेकिन राजस्थान सरकार को एक सुनियोजित अभियान के अन्तर्गत राजस्थानी व्यंजनों एवं खाद्य पदार्थों को दुनिया में प्रसिद्धि दिलाने के लिये प्रोत्साहन योजना बनानी चाहिए।
राजस्थान में उपयोग में लायी जाने वाली विशिष्ट सब्जियों में काचरे, कंकेडे, कुमटी, कैर, सांगरी, ग्वारफली, ग्वारपाठा, टिण्डे, खींपौली, लहसुन, चटनी, गट्टे, कढी, पित्तौर आदि सम्मिलित होते हैं। राजस्थानी भोजन की विविधता व पौष्टिकता का कोई सानी नहीं है।
लहसुन की चटनी एक बहुत ही प्रसिद्ध राजस्थानी व्यंजन है। यह खाने में बहुत ही स्वादिष्ट और लाभकारी भी है। क्योकि लहसुन की प्रकृति गरम मानी जाती है इसलिए सर्दियों में लहसुन का प्रयोग करना बहुत ही फायदेमंद होता है। लहसुन की चटनी को बाजरे की रोटी के साथ भी पसंद किया जाता है।
राजस्थानी पिटौर एक पारंपरिक सब्जी है। इसमें दही और सब्जी बेसन को ढोकला की तरह भाप में पका लिया जाता है। पके हुये बेसन को परात में जमा कर इसके छोटे छोटे टुकडे कर लिये जाते हैं। इन भाप में पकी, कटी हुई बेसन दही की कतलियों को छोंक कर तरीदार सब्जी बना ली जाती है।
दाल की पूरी को राजस्थान में चीलड़ा भी कहा जाता है । उड़द की दाल को आटे में गूँथ कर बनाई गई यह पूरी कचौड़ी का स्वाद देती है। यह पूरियां बहुत जल्दी बन जाती हैं, और स्वादिष्ट होती हैं।
आनन्ददायी एवं सात्विक राजस्थानी पाकशैली से प्रेरित, गेहूं की बीकानेरी खिचड़ी साबूत गेहूं से बनी बेहद स्वादिष्ट और शानदार व्यंजन है। तरका दाल एक पौष्टिक व्यंजन है, जो राजस्थान के विशेष जायके को प्रदर्शित करता है।
यह चार दालों को मिलाकर पारंपरिक मसाले, अदरक और मिर्ची के तीखे स्वाद के साथ खट्टेपन के लिए एक बूंद निम्बू का रस डाल कर बनाई गई है। इसे टेंगी ग्रीन मूंग दाल का भी कहा जाता है जिसका आनन्द बाटी के साथ लिया जा सकता है या आप इसे रोटी या चावल के साथ भी परोस सकते हैं।
बाजरा खिचड़ी एक मशहूर एक संपूर्ण राजस्थानी व्यंजन है। यह और भी ज्यादा पौष्टिक और स्वस्थ सामग्री से बना है, जैसे साबूत मूंग, हरे मटर और टमाटर। मकई की रोटी एक कुरकुरा एहसास देती है, जो इसे काफी हद तक अनोखा बनाती है।
यह उर्जा देने वाला व्यंजन हैं, जिसे आप चाहे नाश्ते में या दोपहर के भोजन मे परोसें, यह आपकी व्यंजन सूची को एक नया रूप देगा। मंगोड़ी की सब्जी एक राजस्थानी व्यंजन है, जो कि सूखी मसूर की बड़ियों से बनती है। यह दिखने में काफी आकर्षक व खाने में काफी स्वादिष्ट होती है। इसे आप रोटी के साथ खा सकते हैं।
राजस्थान में वर्षा की कमी व सिंचाई के साधनों की कमी की वजह से हरी सब्जियों की पहले बहुत कमी रहती थी। प्रकृति ने राजस्थान में ऐसे कई पेड़ पौधे उगाकर राजस्थान वासियों की इस कमी को पूरा करने के लिए केर, सांगरी व कुमटिया आदि सूखे मेवों की उपलब्धता करा एक तरह से शानदार सौगात दीह है।
प्रकृति की इसी खास सौगात के चलते राजस्थानवासी अपने घर आये मेहमानों के लिए खाने में सब्जियों की कमी पूरी कर “अथिति देवो भव” की परम्परा का निर्वाह करने में सफल रहे हैं। राजस्थान में उपलब्ध ये तीन फल ऐसे हैं जिन्हें सुखाकर गृहिणियां सब्जी के लिए वर्षपर्यन्त इस्तेमाल करने लायक बना इस्तेमाल करती रही है।
इन तीनों सूखे मेवों से बनी सब्जी जिसे “पंच-कूटा” कहा जाता है, राजस्थान में शाही सब्जी की प्रतिष्ठा पा चुकी है। केर नाम की एक कंटीली झाड़ी रेगिस्तानी इलाकों में बहुतायत से पाई जाती है इस पर लगे छोटे छोटे बेरों के आकर के फल को ही केर कहते हैं। केर को आप चेरी आॅफ डेजर्ट भी कह सकते है। खेजड़ी के पेड़ पर लगने वाली हरी फलियों को ही सांगरी कहा जाता है।
यदि इन फलियों को कच्चा तोडा ना जाए तो ये पकने के बाद खाने में बड़ी स्वादिष्ट लगती है। सुखी पकी फलियाँ जिन्हें राजस्थानवासी खोखा कहते है हवा के झोंके से अपने आप धरती पर गिरते रहते है जो बच्चों के साथ ही बकरियों का भी मनपसंद भोजन है। सांगरियों को कच्चा तोड़कर उबालकर सुखा लिया जाता है।
सूखी फलियों को सूखे केर व कुमटियों के साथ मिलाकर स्वादिष्ट शाही सब्जी तैयार की जाती है। ताजा कच्ची सांगरी से भी स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है पर उसकी उपलब्धता सिर्फ सीजन तक ही सीमित है। कुमटिया यह भी एक पेड़ होता है जिसकी फलियों को सुखाकर उनमें से बीज निकालकर उनका सब्जी के लिए प्रयोग किया जाता है।
आज हमारा युवा वर्ग फास्ट फूड के प्रति ज्यादा आकर्षित हो रहा है। पिज्जा, बर्गर, मेकराॅनी, नूडल्स आदि का नाम लेते ही स्वास्थ्यपर्द्धक न होते हुए भी उनके मुंह में पानी भर आता है। माना है कि विविधता सबको पसंद है, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि राजस्थानी व्यंजनों में भी अनेकों फास्ट फूड हैं तो कि गुणवत्ता एवं स्वाद की दृष्टि से किसी भी भोजन से कम नहीं है।
अक्सर बच्चे व युवा वर्ग चाइनीज, इटेलियन मैक्सिकन आदि वेस्टर्न फूड की बात करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपनी संस्कृति से कट रहे हैं, अपनी जड़ों से दूर हो रहे हैं। दूसरे ओर डिब्बाबन्द एवं तैयार खाद्य पदार्थो पर मार्केटिंग का प्रभाव बहुत हावी हैं, इसलिए हम भी उन्हीं की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
हमने विदेशी प्रचार के चक्कर में अपने अनेक व्यंजन त्याग कर कचरा भोजन को कबूल कर लिया, अब देसी विकल्प यानी राजस्थानी व्यंजनों को प्रतिष्ठित एवं प्रचनित करने का समय है। आज हमें भी अपने व्यंजनों को बढ़ावा देने के लिए उनकी गुणवत्ता को दर्शाते हुए उनका व्यापक प्रचार करने की आवश्यकता है।
ललित गर्ग