एक बार फिर जेएनयू चर्चा में है। यह चर्चा फिर से ‘देशद्रोह’ से जुड़ी है। जेएनयू के प्रोफेसरों पर आरोप है कि उन्होंने बस्तर के कई गांवों में सभाएं लेकर ग्रामीणों को सरकार का विरोध और नक्सलियों का समर्थन करने के लिए धमकाया है। हालांकि, एक-दो समाचार वाहनियों (चैनलों) और समाचार-पत्रों को छोड़ दें तो यह चर्चा मुख्यधारा के मीडिया में कम ही है।
‘देशद्रोह’ के आरोपी छात्रों का साक्षात्कार लेने के लिए कतारबद्ध सूरमा पत्रकार भी इस खबर पर मुंह में दही जमाकर बैठे हैं। वह तो शुक्र है कि आज के दौर में सोशल मीडिया है। सोशल मीडिया के जरिए ही जेएनयू के प्रोफेसरों की ‘देशद्रोही’ करतूत उजागर हो रही है। हम सब जानते हैं कि जेएनयू की छवि वामपंथ के गढ़ के रूप में है। जेएनयू यानी लालगढ़, यह आम धारणा बन गई है।
वामपंथी नक्सलियों के पोषक हैं, यह भी सच्चाई है। वामपंथी इस सच्चाई को छिपाने की भी कोशिश करें, तो छिपा नहीं पाएंगे। जेएनयू के शिक्षकों पर नक्सल समर्थक होने के आरोप पहली बार लगे हैं, ऐसा नहीं है। अनेक अवसर पर वहाँ के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर नक्सलवादी विचारधारा के प्रवर्तक और समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं।
यहां ध्यान देने की बात यह है कि जेएनयू के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर इस तरह के आरोप अकारण नहीं लगते हैं। इसके पीछे कुछ तो सच्चाई है। माना कि पूरा जेएनयू नक्सल/वाम का गढ़ नहीं है। यह इसलिए भी मानना चाहिए, क्योंकि समूचा जेएनयू वामपंथ की विचारधारा से ग्रसित होता तब उसकी चाहरदीवारी से सच लाँघकर हमारे सामने नहीं आ पाता।
‘देशद्रोही नारेबाजी’ को देश के सामने लाने का काम जेएनयू के ही देशभक्त छात्रों ने किया था। वहीं दूसरी ओर, जेएनयू की वामपंथी लॉबी किस हद तक नक्सलवादियों (आतंकवादियों) की समर्थक है, इसे वर्ष 2010 के एक घटनाक्रम से समझा जा सकता है।
नक्सली आतंकवादियों ने जब दंतेवाड़ा में बेरहमी से 76 जवानों की हत्या की थी, तब जेएनयू में जश्न मनाया गया था। देश के 76 जवानों की मौत पर दु:खी होने की जगह पूरी निर्लज्जता के साथ नक्सलियों की कायराना जीत का उत्सव मनाया गया।
इसी मानसिकता के शिक्षकों ने एक बार फिर जेएनयू को बदनाम किया है। बस्तर के कुम्माकोलेंग और नामा गांव के लोगों ने जेएनयू की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद, डीयू की नंदिनी सुंदर, जोशी शोध संस्थान के विनीत तिवारी और सीपीएम नेता संजय पराते के खिलाफ दरभा थाने में नामजद शिकायत दर्ज कराई है।
शिकायत में ग्रामीणों ने कहा है कि दिल्ली से बड़ी गाडिय़ों में आए उक्त प्रोफेसरों ने बैठक लेकर कहा कि यह केन्द्र और राज्य सरकार आपका भला नहीं कर सकती। पुलिस, प्रशासन और सरकार का विरोध करो। अपनी जान और माल की सुरक्षा चाहते हो तो नक्सलियों का साथ दो। फिलहाल मामले की जांच चल रही है।
छत्तीसगढ़ पुलिस के आठ अधिकारियों का दल इस मामले की जांच कर रहा है। हालांकि खबरों के मुताबिक पुलिस की प्राथमिक जांच में दिल्ली से गए तीनों प्रोफेसर और माकपा नेता देशद्रोह के आरोपी साबित हो रहे हैं।
उन्होंने बस्तर के नक्सल प्रभावित गांवों में सभा करके भोले-भाले ग्रामीणों को सरकार के खिलाफ बगावत के लिए न केवल उकसाया है बल्कि नक्सलियों का साथ देने के लिए उन पर दबाव बनाया है।
बस्तर एएसपी विजय पाण्डे के मुताबिक जेएनयू प्रोफेसर अर्चना प्रसाद और विनीत तिवारी के बारे में ग्रामीणों ने बताया कि वह साफतौर पर नक्सलियों का साथ देने के लिए उन्हें भड़का रहे थे। प्रोफेसरों ने ग्रामीणों से कहा कि केन्द्र और राज्य सरकार उनके लिए कुछ कर सकती है। सिर्फ नक्सली ही उनकी मदद कर सकते हैं।
एक प्रोफेसर ने ग्रामीणों को धमकी भी दी कि नक्सलियों का साथ दो, वरना नक्सली उनके गांव को जला देंगे। यदि यही पूरा सच है या फिर सच के करीब भी है तब भी चिंता की बात है।
आखिर इस तरह के शिक्षक समाज का नेतृत्व करने के लिए किस तरह के विद्यार्थियों को तैयार करेंगे? जब शिक्षक ही आतंकियों का समर्थन करेंगे तब उनके विद्यार्थी कहाँ पीछे रह जाएंगे? क्या शिक्षक अपनी भूमिका के साथ न्याय कर रहे हैं? शिक्षकों का यह आचरण किसी भी सूरत में देशहित में नहीं है।
छत्तीसगढ़ की जनता लम्बे समय से नक्सलवाद का दंश भोग रही है। हजारों पुलिसकर्मी और आम नागरिक नक्सली आतंक का शिकार हुए है। वर्षों चली लड़ाई के बाद अब नक्सली खत्म होने की कगार पर पहुंच गए हैं। आम आदमी भी उनके आतंक से आजिज आ चुका है।
ग्रामीणों का भरोसा और सहयोग ही नक्सलियों की ताकत था। लेकिन, अब ग्रामीण समझ गए हैं कि नक्सलियों का साथ देकर वह न केवल विकास से वंचित रह गए बल्कि इस हिंसा ने उनके बच्चों को भी निगल लिया है।
सरकार के प्रयास और जागरूकता के चलते नक्सल प्रभावित बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा, कोंटा, कांकेर, कोंडागांव और नारायणपुर में बड़ी तादाद में आदिवासियों ने पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों के सामने आत्मसमर्पण किया है। बस्तर के ही कुम्माकोलेंगे और नामा गांव में कई लोगों ने आत्मसमर्पण किया है। अब इन गांवों के लोग नक्सलियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं।
ग्रामीण नक्सलियों को फिर से अपने गांव में घुसने नहीं देना चाहते। ग्रामीण इसके लिए चौकीदारी तक कर रहे हैं। प्रोफेसरों के दल के सामने भी इन ग्रामीणों ने कहा था कि नक्सलियों से अपने गांव और बेटे-बेटियों को बचाने के लिए हम चाहते हैं कि गांव में पुलिस कैम्प बने।
बहरहाल, जेएनयू के प्रोफेसरों और नक्सली (आतंकियों) के बीच का रिश्ता समझने के लिए हमें ध्यान देना होगा कि अभी हाल में नक्सलियों ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए ग्रामीणों को अपने साथ जोडऩे की रणनीति बनाई है। जबकि ग्रामीण अब नक्सलियों के साथ आने को तैयार नहीं है। वह तो नक्सलियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं।
ऐसे में क्या यह सच नहीं लगता कि नक्सलियों के लिए समर्थन जुटाने के लिए यह प्रोफेसर दिल्ली से बस्तर जाते हैं और सीपीएम नेता के साथ 12 से 16 मई के बीच गांव-गांव दौरा करते हैं। नक्सलियों का साथ देने के लिए ये प्रोफेसर पहले तो ग्रामीणों को बरगलाने का प्रयास करते हैं, जब उनकी कपटपूर्ण बातें अपना असर नहीं छोड़ती तब वे भोले-भाले ग्रामीणों को धमकाने से भी बाज नहीं आते हैं।
हालांकि, प्रोफेसरों का कहना है कि वह इस बात की पड़ताल करने गए थे कि किस तरह आदिवासी पुलिस के अत्याचार से पीड़ित हैं। पुलिस और प्रशासन किस तरह नक्सलियों का भय दिखाकर ग्रामीणों की जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। उनके इस कबूलनामे से भी इतना तो स्पष्ट होता है कि नक्सलियों के प्रति उनकी सहानुभूति है।
बहरहाल, सच सामने आ ही जाएगा। लेकिन, देश एक बार फिर वामपंथी विचारधारा के शिक्षकों और नक्सलियों के बीच के रिश्ते को समझ गया है। देश यह भी समझ रहा है कि आखिर क्यों जेएनयू में ‘देशद्रोही’ और ‘भारतीय संस्कृति’ के खिलाफ षड्यंत्र रचे जाते हैं।
लोकेन्द्र सिंह