नई दिल्ली। रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजने के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मानव अधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि हमारा संविधान मानवतावादी और सुरक्षा करने वाला है। हम बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं की तकलीफों से बेखबर नहीं हो सकते हैं। सरकार को भी संवेदनशील होने की जरुरत है।
सुनवाई के दौरान जब चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि सरकार को रोहिंग्या को वापस नहीं भेजना चाहिए तो एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि नहीं। अगर आप ऐसा करेंगे तो ये इंटरनेशनल हेडलाइन बन जाएगी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर विस्तृत सुनवाई 21 नवंबर को करने का फैसला किया।
पिछले 3 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस मसले पर मानवीय रवैया अपनाने को कहा था। सुनवाई के दौरान रोहिंग्या मुसलमानों की तरफ से वरिष्ठ वकील फाली एस नरीमन ने अपने बारे में कहा था कि वे बर्मा के वास्तविक शरणार्थी हैं। उन्होंने कहा था कि वे ब्रिटिश बर्मा से भागकर ब्रिटिश इंडिया में शरणार्थी बने।
उन्होंने कहा था कि ये स्पष्ट नहीं है कि एनडीए की सरकार ने शरणार्थियों को शरण देने की नीति रोहिंग्या मुसलमानों के लिए क्यों बदल दी। रोहिंग्या याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया था कि सरकार शरणार्थियों पर बनाई अपनी गाइड लाइन से मुकर नहीं सकती है। केंद्र सरकार ने कहा था कि पहले यह तय हो कि ऐसे मामलों में कोर्ट विचार कर सकता है या नहीं।
3 अक्टूबर को ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले में पक्षकार बनाने के लिए अर्जी दायर की थी। सीपीएम के युवा संगठन डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया ने भी सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजने के फैसले का विरोध किया।
पिछले 22 सितंबर को में केंद्र सरकार द्वारा दायर हलफनामे के जवाब में याचिकाकर्ता दो रोहिंग्या मुसलमानों की तरफ से दायर हलफनामे में केंद्र सरकार के इस दावे का विरोध किया गया था कि रोहिंग्या मुसलमान सुरक्षा के लिए खतरा हैं। वकील प्रशांत भूषण ने इस हलफनामे में कहा है कि देश की सुरक्षा की खतरा बताने वाला एक भी एफआईआर दर्ज नहीं किया गया है।
हलफनामे में कहा गया है कि वे म्यामांर छोड़कर इसलिए भागे क्योंकि वहां उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था और नरसंहार हो रहे थे। हमें अंतरराष्ट्रीय संधि और करार के मुताबिक भारत में सुरक्षा मिलनी चाहिए। उन संधियों और करारों पर भारत ने हस्ताक्षर किए हैं।
अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी सिद्धान्तों के मुताबिक शरण लेने वाले को उस देश में वापस नहीं भेजा जा सकता है जहां उसकी जान को किसी भी तरह का खतरा हो। हलफनामे में कहा गया है कि भारत के संविधान की धारा 14 और 21 के तहत जीने और समानता का अधिकार सभी नागरिकों और गैर-नागरिकों पर लागू होता है।
पिछले 18 सितंबर को अपने हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा है कि रोहिंग्या मुसलमान भारत को संसाधनों पर बोझ हैं। वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। केंद्र ने कहा है कि रोहिंग्या मुसलमानों को वापस भेजना अवैध आप्रवासियों से निपटने का एक नीतिगत फैसला है।
केंद्र ने कहा है कि उसके पास खुफिया सूचना है कि रोहिंग्या मुसलमानों के पाकिस्तान के आईएसआई और आईएस जैसे आतंकी संगठनों से ताल्लुकात हैं। केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा है कि म्यांमार, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में एक संगठित गिरोह है जो रोहिंग्या मुलसमानों को भारत में भेजते हैं। वे 2012 से भारत में आ रहे हैं और उनकी संख्य करीब चालीस हजार है।
याचिका में न्यूज़ एजेंसी रायटर के 14 अगस्त के एक खबर को बनाया गया है जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को रोहिंग्या मुसलमानों समेत अवैध आप्रवासियों की पहचान करने और उन्हें वापस भेजने का निर्देश दिया है। रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ बौद्ध बहुल म्यामांर में कई मुकदमे लंबित हैं।
याचिका में कहा गया है कि केंद्र सरकार का इन शरणार्थियों को वापस भेजने का फैसला संविधान की धारा 14, 21 और51(सी) का उल्लंघन है। उनको वापस भेजना अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानूनों का उल्लंघन है। अंतरराष्ट्रीय कानून इन शरणार्थियों की सुरक्षा की गारंटी देता है।
याचिका में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की 2016 की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि म्यामांर के अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के जीने की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है।