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role of regional political parties in India
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भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका

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भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका
role of regional political parties in India
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role of regional political parties in India

प्रस्तावना : भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा जनता के कल्याण के लिए एवं जनता द्वारा शासन किया जाता है। प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में सभी नागरिकों को यह अधिकार होता है किए उनकी आवाज को सुना जाए चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, लिंग या क्षेत्र के हों। भारत में संधीय शासन प्रणाली अपनाई गई है।

संघीय शासन प्रणाली में नीतियां एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं जिसके कारण क्षेत्रीय समस्याएं या तो उपेक्षित हो जाती हैं या उन पर कम ध्यान दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में उन क्षेत्रीय समस्याओं या मुद्दों को आवाज देने और उन पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने के लिए क्षेत्रीय दलों का उदय होता है।

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि ये न केवल क्षेत्रीय समस्याएँ या मुद्दे जो उपेक्षित हैं कि तरफ देश का ध्यान आकर्षित करती हैं बल्कि उसके निवारण के लिए प्रयास भी करती हैं ।भारत में बहु-दलीय पार्टी व्यवस्था है जिसमें छोटे क्षेत्रीय दल अधिक प्रबल हैं।

राष्ट्रीय पार्टियां वे हैं जो चार या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त हैं। उन्हें यह अधिकार भारत के चुनाव आयोग द्वारा दिया जाता है, जो विभिन्न राज्यों में समय समय पर चुनाव परिणामों की समीक्षा करता है। इस मान्यता की सहायता से राजनीतिक दल कुछ पहचानों पर अपनी स्थिति की अगली समीक्षा तक विशिष्ट स्वामित्व का दावा कर सकते हैं।

भारत के संविधान के अनुसार भारत में संघीय व्यवस्था है जिस में नई दिल्ली में केन्द्र सरकार तथा विभिन्न राज्यों व केन्द्र शासित राज्यों के लिए राज्य सरकार है। इसीलिए, भारत में राष्ट्रीय व राज्य (क्षेत्रीय), राजनीतिक दलों का वर्गीकरण उनके क्षेत्र में उनके प्रभाव के अनुसार किया जाता है।

राज्य/क्षेत्रीय दलों का विकास

वे दल जिनके पास एक राज्य में पर्याप्त वोट या सीटें हों, उन्हें चुनाव आयोग द्वारा राज्य पार्टी के रूप में अधिकृत किया जा सकता है। संबंधित राज्य में राज्य दल के रूप में मान्यता मिलने से दल को एक विशेष चुनाव चिन्ह आरक्षित करने का विकल्प मिल सकता है। एक पार्टी को एक या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त हो सकती है। चार राज्यों में मान्यता प्राप्त पार्टी को स्वतः ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता प्राप्त हो जाती है।

भारत में क्षेत्रीय दलों का इतिहास काफी पुराना है। हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय दली का उदय विशेष परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ है। पंजाब में 1920 से ही अकालियों की राजनीति चलती आ रही है। कश्मीर में पहले मुस्लिम कांफ्रेंस बनी जिसे बाद में नेशनल कान्फ्रेंस के नाम से जाना गया। तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी का गठन हुआ ।1949 व में द्रमुक पार्टी का गठन हुआ।

इसके अतिरिक्त बंगला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस जैसे कांग्रेस क्षेत्रीय दलों तथा विशाल हरियाणा पार्टी, गणतंत्र परिषद आदि का भी उदय हुआ है। ये सभी दल अलग-अलग राज्यों में प्रभावशाली है न कि किसी विशेष क्षेत्र में।

क्षेत्रीय दलों के उदय के कारण

भारत एक बहुभाषी, बहुजातीय, बहुक्षेत्रीय और विभिन्न धर्मों का देश है। भारत जैसे विशाल एवं विभिन्नताओं से भरे देश में क्षेत्रीय दलों के उदय के अनेक कारण हैं। पहला प्रमुख कारण जातीय, सांस्कृतिक एव भाषायी विभिन्नताएं हैं। विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अपनी समस्याएँ होती हैं जिन पर राष्ट्रीय दलों या केन्द्रीय नेताओं का ध्यान नहीं जाता परिणामस्वरूप क्षेत्रीय दलों का उदय होता है । दूसरा केन्द्र अपनी शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से करता रहा है।

केन्द्र की शक्तियों कें केन्द्रीयकरण की इसी प्रवृत्ति के कारण अनेक क्षेत्रीय दलों का जन्म हुआ है। तीसरा, उत्तरी भारत की प्रधानता को लेकर आशंकाएँ भी क्षेत्रीय दलों के उदय का कारण रहा है। क्षेत्रीय दलों के उदय का चौथा प्रमुख कारण कांग्रेस दल की संगठनात्मक दोष भी है। केन्द्र में कांग्रेस की स्थिति तो मजबूत थी परन्तु राज्यों में कांग्रेस संगठन विखरता जा रहा था। परिणामस्वरूप कांग्रेस में संगठन संबंधी फूट और कमजोरियां आ गई और राज्य स्तर के अनेक नेताओं ने क्षेत्रीय दलों के गठन में प्रमुख भूमिका निभाई। पांचवा, क्षेत्रीय दलों उदय का कारण जातीय असंतोष भी रहा है। अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गो के लिए सामाजिक न्याय की माँग हेतु भी क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है।

क्षेत्रीय दलों का स्वरूप

हमारे देश में मुख्य रूप से तीन प्रकार के क्षेत्रीय दल पाए जोते हैं। पहला वे दल जो जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं एवं उन पर आधारित हैं। ऐसे दलों में अकाली दल, द्रमुक, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेस, क्षारखण्ड पार्टी, नागालैण्ड नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी आदि प्रमुख हैं। दूसरे वे दल जो किसी समस्या विशेष को लेकर राष्ट्रीय दलों विशेष रूप से कांग्रेस से पृथक होकर बने हैं। ऐसे दलों में बंगला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस, विशाल हरियाणा आदि है। तीसरे प्रकार के दल वे दल हैं जो लक्ष्यों और विचारधारा के आधार पर तो राष्ट्रीय दल हैं किन्तु उनका समर्थन केवल कुछ लक्ष्यों तथा कुछ मुद्दों में केवल कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। ऐसे दलों में फारवर्ड ब्लॉक मुस्लिम लीग, क्रान्तिकारी सोशलिस्ट पार्टी आदि प्रमुख हैं। अकाली दल एक राज्य स्तरीय दल है जिसका स्वरूप धार्मिक राजनीतिक रहा है।

जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का प्रश्न उठा तो अकाली दल ने पंजाबी भाषा राज्य की मांग की जिसके परिणामस्वरूप 1966 में पंजाबी भाषा राज्य का गठन हुआ। द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम और अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम का गठन छुआ छुत एवं जात-पात के बन्धनों को मिटाने के लिए हुआ था। इन दोनों क्षेत्रीय दलों का उद्धेश्य है कि समाज के पिछड़े बर्गो को समान अवसर दिए जाए तथा छुआ छूत को पूरी तार समाप्त किया जाए।

तमिल भाषा का एवं सस्कृति का प्रचार एवं हिन्दी के जबरन लादे जाने का विरोध किया जाए आदि बहुजन समाज पार्टी का लक्ष्य भी ब्राह्मणवाद का विरोध है, इनकी मॉग थी कि ऐसी व्यवस्था की जाए जिसमे किसी भी वर्ग या जाति के लिए आरक्षण की आवश्यकता नहीं रहे। मुस्लीम लीग का मुख्य उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करनी है। कांग्रेस दल के कमजोर होने के कारण क्षेत्रीय एच राज्यस्तरीय दलों का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है।

वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है इस नाते इस देश में प्रत्येक व्यक्ति, जाति, वर्ग और समाज की आवाज सत्ता के केन्द्र तक पहुंचे इसकी व्यवस्था की गई है। पिछले कुछ दशकों से हो रहे चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो यह समझ आता है कि वर्तमान में ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के लिए बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं।

क्षेत्रीय दलों के कारण इन राष्ट्रीय दलों को कईं राज्यों में इनका सहारा लेना पड़ता है और हालात ये है कि भारतीय जनता पार्टी जो वर्तमान में केन्द्र की सत्ता में उसका कईं राज्यों में वजूद तक नहीं है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस जिसने सबसे लम्बे समय तक देश में राज किया है वह अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। क्षेत्रीय दलों के बढ़े प्रभाव ने इन राष्ट्रीय दलों के समक्ष कईं जगह तो अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो गई है ।

आज राजनीतिक महाकुण्ड में क्षेत्रीय दलों को जो महत्त्व दिया जा रहा है उसका देश के एकात्मक संधीय ढाँचे पर गम्भीर बहुमुखी प्रभाव पड़ेगा। हमारे यहां पर क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की भांति है। ये दल वर्ग संघर्ष और प्रांतवाद-भाषावाद के जनक हैं। कुछ पार्टियां वर्ग संघर्ष को कुछ पार्टियां प्रांतवाद और भाषावाद को बढ़ावा देने वाली पार्टियां बन गई हैं।

इनकी तर्ज पर जो भी दल कार्य कर रहे हैं उनकी ओर एक विशेष वर्ग के लोग आकर्षित हो रहे हैं, जिन्हें ये अपना वोट बैंक मानते हैं। इस वोट बैंक को और भी सुदृढ़ करने के लिए ये दल किस सीमा तक जा सकते हैं-कुछ कहा नहीं जा सकता। देश के सामाजिक परिवेश में आग लगती हो तो लगे, संविधान की व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ती हों तो वे भी उड़ें राष्ट्र के मूल्य उजडते हों तो उजडें इन्हें चाहिए केवल वोट इनकी इस नीति का परिणाम यह हुआ है कि भाषा प्रांत और वर्ग की अथवा संप्रदाय की राजनीति करने वालों के पक्ष में पिछले 20 वर्षों में बड़ी शीघ्रता से जन साधारण का धु्रवीकरण हुआ है।

भाषा, प्रांत और वर्ग की कट्टरता के कीटाणु लोगों के रक्त में चढ़ चुके हैं फैल चुके हैं और इस भांति रम चुके हैं कि जनसाधारण रक्तिम होली इन बातों को लेकर कब खेलना आरंभ कर दे-कुछ नहीं कहा जा सकता।

क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों को अपने राज्य में चुनाव लड़वाते हैं और राज्य की राजनीति में राष्ट्रीय दलों का सहयोग लेकर सत्ता पर आसीन होते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनको अपने राज्य की राजनीति के लिए राष्ट्रीय दलों के सहारे की भी जरूरत नहीं है और जब ये क्षेत्रीय दल राष्ट्र की राजनीति में आते हैं तो ये राष्ट्रीय दल इनके सहारे से अपनी सरकार बनाते हैं। क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर या जाति व्यवस्था के नाम पर उदित होते हैं और इसी कारण ये अपना प्रभाव अपने राज्य में बनाने में सक्षम रहे हैं।

जातिय, भाषायी, सांस्कृतिक विभिन्नता एवं देश की विशालता भी क्षेत्रीय दलों के जन्म का प्रमुख कारण रही है। एक बड़ा कारण क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने का कांग्रेस पार्टी भी रही है।

कांग्रेस पार्टी में जब जब संगठन में बिखराव हुआ तब तब कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अपने क्षेत्र में दल बनाए और कांग्रेस से अलग हो गए। ममता बनर्जी, शरद पंवार, स्वर्गीय पी ए संगमा सहित ऐसे कईं उदाहारण है जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपने दल बनाए और आज वे कांग्रेस के लिए सरदर्द बने हुए हैं।

इस तरह क्षेत्रीय दल के नेताओं की सोच अपने क्षेत्र विशेष की जाति, समाज व क्षेत्र के विकास की रहती है और इस कारण राज्य स्तर पर तो यह दल खूब विकसित हो जाते हैं परंतु जब देश की राजनीति की बात आती है तो ये दल देश की राजनीतिक सोच के आगे बौने नजर आने लगते हैं।

सिर्फ सीट पाने की महत्वकांक्षा के कारण और अपने पास सर गिनाने लायक सीटे होने के कारण इस दल के नेता पद पा लेते हैं, ऐसे हालात में राष्ट्रीय दलों की मजबूरी होती है कि वे इन क्षेत्रीय दलों को महत्व दें और अपनी पार्टी लाइन से हटकर इनके साथ समझौता करें।

हालात ये हैं कि क्षेत्रीय दलों के नेता रेल मंत्रालय, कोयला मंत्रालय सहित केन्द्र के कईं महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर काबिज रहे हैं और इसका परिणाम यह हुआ है कि जब लालू यादव रेल मंत्री बनते हैं तो देश की सारी ट्रेनों का रूख बिहार की तरफ होता है और तब ममता बनर्जी ये पदभार संभालती है तो बंगाल रेल से मालामाल हो जाता है।

झारखण्ड के शीबू सोरेन जब कोयला मंत्री थे तो बिहार और झारखण्ड के कोयला भण्डार के क्या हाल थे ये देश से नहीं छिपा। कहने का मतलब ये है कि तब भी क्षेत्रीय दल हावी रहे तब देश में असंतुलित विकास हुआ। वर्तमान में राज्यों में हुए चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व प्रभावी रहा और इन दलों ने राष्ट्रीय दलों के सामने हार नहीं मानी बल्कि अपना वजूद साबित किया।

ये इस बात का सबूत है कि वर्तमान में भी असंतुलित विकास और भाषा व जाति की प्रधानता ने अपने आप को कायम रखा है। भारत में उत्तर भारत की प्रधानता ने भी क्षेत्रीय दलों को हावी किया है इसलिए ये भी जरूरी है कि देश में राष्ट्रीय पार्टियाँ हर राज्य व राज्य के नागरिक को समान अधिकार के साथ अपनाए और सबके लिए अपनी पार्टी लाईन में जगह बनाएं।

आने वाले कल

जब गत 20 वर्षों में हमने पतन की इस अवस्था तक छलांग, लगाई है तो अगले 20 वर्षों में हम कहां पहुंचेगे निश्चित नहीं। परिणाम यह होगा कि भारत में राजनीतिक दलों का नामकरण सीधे सीधे जाति, वर्ग, प्रांत, भाषा और मतों के नामों पर होगा। जातीय संगठन जो आज उभर रहे हैं। वो स्पष्ट कर रहे हैं कि हम बढ़ रहे हैं भयंकर वर्ग संघर्ष की ओर, इसे और भी स्पष्ट करें तो एक गृहयुद्घ की ओर। ऐसी परिस्थिति में इतना अवश्य है कि भारत नाम के राष्ट्र की स्वतंत्रता अवश्य संकटों में फंस जाएगी।

राष्ट्र के भीतर स्वतंत्र वर्गों की निजी सेनाएं तैयार की जा रही है। ये मान सम्मान की लड़ाईयां लडऩे को दण्ड बैठक लगा रही है। जो क्षेत्रीय दल और संगठन आज इनके जनक हैं। कल ये ही इनके निशाने पर होंगे, इसमें दो मत नहीं। क्योंकि एक दल दूसरे के लिए सेना तैयार कर रहा है और दूसरा पहले के लिए तैयार कर रहा है। परिणाम भी वही भुगतेंगे किंतु विनाश राष्ट्र,राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का होगा।

जातीय दलों के पास राष्ट्र के लिए केवल विनाश परोसने के अतिरिक्त और क्या है? गठबंधन की राजनीति इस क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ की गंदी और घृणित मनोवृति पर अंकुश लगा सकेगी, इसमें संदेह है। राजनीति में जब हिस्सा मांगा जाने लगे अपने समर्थन का मूल्य मांगा जाने लगे तो ऐसी विकृत मानसिकता विखण्डन की मानसिकता होती है। इसका परिणाम बडे बडे और सुदृढ़ राष्ट्रो को भी विखंडित कर दिया करता है।

सैकड़ों संगठन ऐसे हैं जो राज्य स्तर पर या क्षेत्रीय स्तर पर अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलाप रहे हैं। उनका विस्तार पूर्वोत्त्तर के उन छोटे छोटे राज्यों में अधिक है जिनकी जनसंख्या कुछ लाखों में ही सिमटी हुई है और जहां पर भारत विरोधी ईसाई मिशनरी अपना जाल फैला चुकी है। ऐसा क्यों हो रहा है? इस ओर से हमारी केन्द्र सरकार का ध्यान नहीं है।

स्वायत्तता की मांग उधर से ही क्यों उठ रही है? और इस स्वायत्तया का ऊंट अंतत: किस करवट बैठेगा इस विषय पर विचारने का समय हमारे नीरो (किसी भी प्राधानमंत्री) के पास नहीं है। यह स्थिति भयावह है। राज्य स्तर का हर दल सामान्यत: राष्ट, के एक टुकड़े अथवा भाग की चिंता कर रहा है। उसे राष्ट्र की चिंता नहीं है। यह स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी कभी देशी रियासतों के राजाओं की हुआ करती थी। इतिहास का वह भयावह भूत आज तक उसी भयावहता के साथ हमारा पीछा कर रहा है। गठबंधन की राजनीति करने वालों के पास लगता है। इस विषय में विचार करने के लिए समय ही नहीं है।

उपसंहार

वर्तमान राजनीतिक व्यवरथा को क्षेत्रीय दल विभिन्न प्रकार से प्रभावित कर रहे है एवं उनका महत्त्व बढ़ता जा रहा है। चुनाव सुधार के विषय में भी ये बात लागू की जा सकती है कि क्षेत्रीय दल सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए ही योग्य माने जाए और राष्ट्रीय पार्टियाँ ही सांसद का चुनाव लडे़ ताकि सर्वव्यापी व सर्वमान्य सोच के नेता निकल कर आए और सब बातों से उपर उठ राष्ट्रीय चिंतन के विषय पर काम किया जा सके। उनके बढ़ते हुए महत्त्व एवं भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। इन दलों की सफलता एवं असफलता से इनकी प्रासंगिकता मे कमी नहीं आई है। सरकार बनाने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई है तथा इनका विधानसभा की सत्ता में शामिल होना लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए उचित है।

: डा. राधेश्याम द्विवेदी