लखनऊ। गुरुवार की देर रात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा अपने पिता द्वारा जारी की गई 325 प्रत्याशियों की सूची से असहमति जताते हुए अपने 235 समर्थकों की सूची जारी कर समाजवादी पार्टी व उसके मुखिया मुलायमसिंह यादव के विरूद्ध बगावती स्वर अपना ही लिए।
यूं इसकी संभावना तो बीते 6 माह से सपा में चले पारिवारिक विवाद के समय से ही महसूस की जा रही थी। किन्तु इसकी परिणति कब होगी, इसकी समय सीमा तय न थी। आगे की संभावनाएं भी करीब-करीब स्पष्ट ही हैं।
पहली संभावना तो यही है कि मुलायम सिंह अखिलेश के प्रमुख समर्थकों को एडजेस्ट कर एक बार फिर कोई मध्यमार्ग निकालें। अगर ऐसा नहीं होता तो संभव है कि मुलायमसिंह यादव सख्त तेवर अपना अखिलेश को ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दें।
यह भी संभव है कि स्वयं अखिलेश ही अपने समर्थकों को अपने विरोधी सपाइयों के समक्ष निर्दलीय या किसी पार्टी सिंबल से लड़ाकर उनके समर्थन में चुनाव प्रचार करें।
किसी भी पक्ष द्वारा इस सम्बन्ध में कोई चर्चा न किए जाने के बावजूद प्रतीत होता है कि वर्ष 2012 में अखिलेश को सत्ता की कमान स्वाभाविक तौर पर नहीं ‘सशर्त’ सोंपी गयी थी। इसमें आरम्भिक कार्यकाल अखिलेश को देते हुए अपेक्षा की गई होगी कि कार्यकाल के मध्य में अखिलेश त्यागपत्र देकर शासन की कमान अपने चाचा शिवपाल को सौंपेंगे। शायद इस शर्त में 2017 का चुनाव भी अखिलेश के नहीं शिवपाल के नेतृत्व में लड़ा जाना तय हुआ होगा।
किन्तु अपने कार्यकाल के दौरान अपनी एक अलग विकासवादी छवि बनाने में सफल रहे अखिलेश को हटाना संभव न रहा तो प्रयास किया गया कि कम से कम कार्यकाल के अंत में तो वे अपने चाचा को भी पूर्व मुख्यमंत्री कहलाने का अवसर देे। अधिक संभावना यही दिखती है कि ऐसा न होने के चलते ही यह मनमुटाव शुरू हुआ।
यही कारण है कि मुलायमसिंह द्वारा उस समय सपा को विखराव से बचाने के लिए किया गया यह समझौता जहां उनकी फांस बना, वहीं देश प्रदेश में अपनी एक अलग छवि बना चुके अखिलेश के लिए यह निर्णय ‘आत्मघात’ के समान था।
बहरहाल संभावनाएं अभी भी शेष हैं। इन में पहली संभावना तो यही है कि सपा के हितैषी पिता-पुत्र-चाचा के मध्य वार्ता कर कोई बीच का रास्ता तलाश लें। स्वयं मुलायमसिंह ही एक बार फिर अपना:धोबियापाट’ चल कोई रास्ता निकालें। अगर ऐसा हुआ तो ठीक, अन्यथा अब तय है कि मुलायम-शिवपाल के समाजवाद और अखिलेश के समाजवाद का रास्ता अलग-अलग होगा।
किन्तु संभावनाएं कुछ भी हों। इस अहं के टकराव ने सपा की सत्ता में वापसी के रास्ते तो करीब-करीब बंद ही कर दिये हैं। अगर दोनों पक्षों में कोई समझौता हो भी गया तब भी बुरी तरह धड़ों में बंट चुकी पार्टी के एक-दूसरे के विरोध में खड़े नेता भितराघात के माध्यम से सपा प्रत्याशियों को हरा अपने-अपने नेताओं के निर्णय को सही साबित करने का प्रयास करेंगे ही।
पार्टी के सामने एक दूसरा संकट तब सामने आएगा जब दोनों महारथी अलग राह पकड़ेगे। ऐसे में दोनों की ही सूची में स्थान पानेवाले उन प्रत्याशियों को यह निर्णय करना खासा मुश्किल होगा कि वह किस नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़े। दूसरे, उनके किसी एक नेता के समर्थन में जाने पर दूसरा धड़ा उनके विरूद्ध अपना प्रत्याशी खड़ा करेगा ही।
पार्टी में इस धड़ेबंदी की एक बड़ी प्रतिक्रिया उस भाजपा विरोध में वोट करने वाले मुस्लिम मतदाता की भी रहनी है। भले ही आजमखां जैसे नेता मुसलमानों का कुछ मत प्रतिशत अपने समर्थक नेता के पक्ष में डलबाने में सफल रहें किन्तु उनका भाजपा के विरोध में मतदान करनेवाला बहुमत अब सपा के नहीं किसी अन्य भाजपा विरोधी दल के खाते में जाएगा।
इसमें भी अधिक संभावना यही दिखती है कि मुस्लिम मतों की आस में ऐड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती बाजी मार जाएं। वैसे राजनीतिकों का एक आकलन अब भी यही है कि भाजपा की बढ़त की सूचनाओं के चलते करीब-करीब सुनिश्चित सी प्रतीत होने वाली पार्टी की पराजय के मध्य अपने युवा मुख्यमंत्री की साख बचाए रखने के लिए ही यह सारी कवायद हो रही है।
राजनीति के जानकार मुलायम इस टूट के माध्यम से इस चुनाव के बाद उस गुट को अपना आशीर्वाद देंगे जिसके अधिक विधायक विजयी होंगे। जबकि दूसरे पर पार्टी की हार का ठीकरा फोड़ उसे पार्टी के बाहर का रास्ता दिखा 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी की जाएगी।
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