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संजा पर्व प्रारंभ, मालवा के अंचलों तक गूंज रहे गीत - Sabguru News
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संजा पर्व प्रारंभ, मालवा के अंचलों तक गूंज रहे गीत

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संजा पर्व प्रारंभ, मालवा के अंचलों तक गूंज रहे गीत
Sanja festival begins its specially meant for unmarried girls
Sanja festival begins its specially meant for unmarried girls
Sanja festival begins its specially meant for unmarried girls

उज्जैन। श्राद्ध पक्ष में पूर्णिमा से अमावस्या तक 16 दिन चलने वाला संजा पर्व प्रारंभ हो गया है। मालवा के अंचलों तक संजा गीतों की गूंज शुरू हो गई है।

प्रतिदिन प्रात: गाय के गोबर से घर की दीवार पर संजा के माण्डने को बनाने तथा शाम को आरती करके संजा गीत गाने की परंपरा के माध्यम से कुंवारी कन्याओं को पीहर से ससुराल की दहलीज तक की लोक परंपरा और सीख देने का एक माध्यम था संजा पर्व। आज के हाई टेक युग में व्हाट्स अप तक का सफर युवतियों ने जरूर कर लिया लेकिन संजा गीतों तथा गीतों के माध्यम से दी जानेवाली सीख की आवश्यकता आज भी प्रासंगिक है,जिसे माता-पिता महसूस करते हैं।

16 दिन चलनेवाले श्राद्ध पक्ष में सोमवार को पूर्णिमा को पाटला बनाया गया। यह पाटला भगवान सत्यनारायण की पूजा का प्रतिक माना गया है। ऐसी मान्यता  है कि विवाह बाद जब बहू ससुराल आती है तो परिजन बेटे-बहु को सत्यनारायण भगवान की कथा सुनवाकर, हवन-पूजा कराते हैं। पाटले को लेकर सामान्य मान्यता है कि नई बहू की रसोई में सबसे पहली दोस्ती पाटला-बेलन से होती है। रोटी की गोलाई बताती है कि उसने अपने मायके में रसोई बनाना सीखा या नहीं?

इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो ज्ञात होगा कि भारतीय लोक गीत वैदिक मंत्रों के उत्तराधिकारी बने। चूंकि लोक गीतों में भाव और शब्द दोनों होते हैं जोकि वैदिक मंत्रों आधार है। वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है कि किस पर्व, उत्सव, पारिवारिक उल्लास में क्या किया जाता है। संजा के माण्डने और गीत न केवल मालवा की लोक संस्कृति के  प्रतिक है वरन् भारतीय जीवन शैली की प्राचीनता को भी इंगित करते हैं।

एक पुष्ट और सुसंस्कृत शैली, जिसमें माता-पिता के घर में बचपन की उन्मुक्त उड़ान है वहीं मां और भाभी का लाड़। जिसमें सास-ससुर-ननद के स्वभाव को लेकर पूर्व कल्पनाएं है वहीं ससुराल में बहू अपने आप को किस तरह से ढाले, यह मार्गदर्शन भी है। संजा के गीत विभिन्नता लिए हुए है। इनमें देश एवं काल समाहित है। गीतों में क्षेत्रों का भी उल्लेख मिलता है, जो बताता है कि संजा का पर्व देश के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता था, जो आज राज्यों में विभाजित हैं।

यदि प्राचीन ग्रंथों का उदाहरण लें तो ऋग्वेद 10-85-6, मैत्रायणी संहिता 3-7-3, गृह्य सूत्र 1-7, शथपथ ब्राम्हण/एतरेय ब्राम्हण में तथा रामायण में श्रीराम जन्म के समय एवं श्रीमद् भागवत  में श्रीकृष्ण जन्म के स्त्रियों के द्वारा सामुहिक रूप से लोक गीत गाने का वर्णन मिलता है। संस्कृत चरित्र महाकाव्य 2-85 में हर्ष ने स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले गीतों का वर्णन किया है।

तुलसीदास ने सीता विवाह के समय स्त्रियों द्वारा गाये गीत – चली संग ले सखी सयानी, गावत-गीत मनोहर बाणी को लिपिबद्ध किया है। ये प्राचीन ग्रंथों के उदाहरण भी बताते हैं कि लोक गीत हमारी संस्कृति के अमिट अंग थे, हैं और रहेंगे।  संजा के गीतों को अपभ्रंश के रूप में भी देखें तो इतना अधिक अंतर नहीं आया। तात्कालिक समय की परिस्थितियों का वर्णन अन्य ग्रंथों में भी मिलता है।

आज बनेगा पड़वा का पंखा और दूज का बिजोरा
तिथियों का घालमेल है, इसलिए सोमवार को पूर्णिमा रही वहीं मंगलवार को पड़वा एवं दूज भेले है। यही कारण है कि कुंवारी कन्याएं मंगलवार को  संजा के माण्डने में एक साथ पड़वा का पंखा एवं दूज का बिजोरा बनाएगी। संजा के माण्डने में बननेवाले पंखे का  माण्डना सेवा और कर्तव्य का प्रतिक है। गैर मशीनी युग में हाथ से ही पंखा झला जाता था। यह हवा करने का काम तो करता ही था, पति जब भोजन करता अथवा विश्राम करता तो पत्नि उसकी सेवा पंखा झलकर करती थी।

पुरूष प्रधान समय में यह माना जाता था कि पति परमेश्वर है और चूंकि वह घर का मुखिया है, इसलिए उसकी हर सुविधा का ध्यान रखना पत्नि का कर्तव्य है। यहां तक कि सासु मां जब विश्राम करती तब भी बहू पंखा झलती। पत्नि का पति एवं ससुराल के परिजनों की सेवा करने का गुण एक अच्छी बहू तथा संस्कारित परिवार की बेटी की झलक दिखाता था।

दूज का बिजौरा भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतिक माना गया है। संजा जब अपने पीहर में थी तो उसे उसके भाई बहुत स्नेह करते थे। उसकी भौजाईयां भी उसे स्नेह देती थी। संजा बड़ी लाड़ की थी। वह जिस चीज की इच्छा व्यक्त करती थी,उसे उसके भाई लाकर देते थे। भाईयों ने कभी उसे डांटा तक नहीं था।

जब संजा ससुराल में जाती है तो उसे सासु-ननद द्वारा मिले दु:ख का इजहार वह चांद और सूरज से करती है। वह इन्हे अपना  भाई मानती है। संजा इनसे अपने दिल की बात कहकर हल्की हो जाती थी। चांद और सूरज संजा के दु:ख को काम करने तथा दिन व तिथियां आगे बढ़ाने में मदद करते थे। उसे विश्वास रहता था कि जल्द ही राखी का त्यौहार आएगा और उसके भाई उसे लेने आएंगे। दिन व रात उसकी प्रतिक्षा के प्रतिक भी थे।