भारत शांति का देश है। संतोष ही इसका धन है। खुद संतुष्ट रहना और दूसरों का संतुष्ट रखना ही भारतीय प्रवृत्ति है। स्वभाव है। यह वह देश है जहां सज्जनों की वंदना तो होती ही है, दुष्टों की भी वंदना होती है।
गोस्वामी तुलसीदास तो मानस रचना की शुरुआत में ही लिखते हैं कि बंदउ प्रथम असज्जन चरना। पितृपक्ष तृप्ति पर्व है। इसमें पितरों को तृप्त करने के लिए तर्पण और श्राद्ध किया जाता है।
इसमें देवताओं और पितरों ही नहीं, शैतानों की तृप्ति की भी अभ्र्यथना की जाती है। पिशाचाश्चतृप्यन्ताम। नागों, गंधर्वों, यक्षों, पर्वतों, सागरों, नदियों, वनस्पतियों, औषधियों की तृप्ति की कामना की जाती है। सप्त ऋषियों के साथ ही सभी ऋषि-मुनियों को आदरांजलि प्रदान की जाती है। भारत सबकी तृप्ति में विश्वास रखता है।
सभी तृप्त होंगे, खुश होंगे तो कलह की स्थिति रहेगी ही नहीं और जहां कलह नहीं होता, वहां सुमति होती है और जहां सुमति होती है, सुख और समृद्धि का निवास भी वहीं होता है। पितृपक्ष आश्विन माह के 15 दिन ही नहीं, वे सभी की प्रसन्नता का बीजमंत्र प्रदान करने वाले दिन हैं। इनका महत्व जानने और समझने की जरूरत है।
पितृपक्ष में कामना की जाती है कि जो भी हमारे बंधु-बांधव हैं, इस जन्म के या फिर अगले जन्म के, वे सभी हमारे जल को प्राप्त कर तृप्त हो जाएं। प्रसन्न हों। ये बांधवा अबांधवा वा ये अन्य जन्मनि बांधवा। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा। यह पर्व दरअसल अपने पुरखों को मान देने का पर्व है।
बुजुर्गों का मान देने का पर्व है। जो अपने दिवंगत पुरखों को मान देता हो, उससे यह अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह लोक में जीवित अपने माता-पिता को सम्मान अवश्य देगा। उनके सेवा-सत्कार में कहीं कोई कोरकसर नहीं रहने देगा।
धन की देवी लक्ष्मी हैं और देवता कुबेर हैं जबकि सुख और शांति के प्रदाता तो पितृगण ही हैं। उनकी प्रसन्नता के बिना किसी को भी सुख-चैन नहीं मिलता। इसलिए देवताओं की तरह ही पितरों का भी पूजन करना चाहिए।
जो अपने पूर्वजों का सम्मान नहीं करता, उनकी यशपताका को गगनचुंबी बनाने के प्रयास नहीं करता, उनके छोड़े हुए कामों को पूरा नहीं करता, वह धन-समृद्धि से युक्त होने के बाद भी संतोष और आनंद की प्राप्ति से वंचित रहता है। कलह और रोग उसकी जिंदगी का हिस्सा बने रहते हैं। व्यतिरेक उसकी जिंदगी को घुन की तरह चाटते रहते हैं।
यह शरीर वस्तुतरू पूर्वजों की ही देन है। इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता और सद्ड्ढभावना प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। जब धरती पर मनुष्य अच्छे काम करता है तो भुवरू लोक में रहने वाले उसके पितरों को आनंद की प्राप्ति होती है और वे उसे सुख-शांति और निरंतर आगे बढने का आशीर्वाद देते हैं।
आश्विन मास के शुरुआती 15 दिन पितरों के होते हैं। इस दौरान देवताओं के लिए की गई पूजा भी पितरों को ही प्राप्त होती है। पितृगण धरती पर रहकर अपने वंशजों की कुशल क्षेम जानते हैं। उन्हें हंसता-खेलता देख प्रसन्न होते हैं और जब वे उन्हें अपकर्मों में लिप्त देखते हैं तो उन्हें उतना ही दुख भी होता है और वे बीच में ही अपने लोक में चले जाते हैं। इसलिए हर मनुष्य को चाहिए कि वह अपने पूर्वजों के सम्मान में कहीं कोई कमी न रहने दे।
गया, काशी, प्रयाग, कुरुक्षेत्र और पुष्कर में यथासंभव पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान और श्राद्ध करे। कुश के सहारे पितरों को तिलोदक चढ़ाने मात्र से वे प्रसन्न हो जाते हैं। पितर दरअसल भाव के भूखे होते हैं। वे अपने वंशजों की अपने प्रति भावना को ही देखना चाहते हैं। वे जानना चाहते हैं कि मत्र्यलोक में रह रहे उनके वंशजों को उनकी याद है भी या नहीं?
वैसे श्राद्ध का अर्थ ही होता है जो कर्म श्रद्धा के साथ किया जाए। श्रद्धया क्रियते यत, तद, श्राद्धः। पितृपक्ष में देवपूजन और तर्पण तो करना ही चाहिए, इसके अतिरिक्त यथासंभव पंचयज्ञ- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ,पितृयज्ञ, भूत यज्ञ और मनुष्य यज्ञ भी करना चाहिए। पितृयज्ञ के लिए पिंडदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि और मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प ही शास्त्रों में विहित हैं।
पितृपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तिथि तक जो नियमित देव तर्पण, ऋषि तर्पण, दिव्य मानव तर्पण और दिव्य मनुष्य पितृ तर्पण करता है। भीष्म तर्पण करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और सांसारिक आधि व्याधियों से उसे निजात मिलती है।
पूर्वजों की तिथि याद हो तो उस दिन भी उन्हें तिल, जौ, चावल, जल और पुष्प से तिलांजलि दी जा सकती है, उनके लिए पिंडदान किया जा सकता है। गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने खुद को पितामह, माता और धाता कहा है। पितामहस्य जगतो माता धाता पितामहरू। वेद्यं पवित्रमोंकारं ऋक्सामयजुरेव च।
पितृपक्ष में गया तीर्थ में फल्गु के जल से प्रेतशिला पर बैठकर पिंडदान और श्राद्ध करने से पितरों की अक्षय सुख की प्राप्ति होती है और वे कल्प पर्यंत बैकंठलोक में निवास करने के अधिकारी हो जाते हैं। प्रेतशिला दरअसल और कुछ नहीं भगवान विष्णु द्वारा मारे गए गयासुर का पेट है। उसने भगवान से वरदान मांगा था कि मेरे पेट पर बैठकर ही संसार के लोग अपने पितरों का श्राद्ध करें।
भगवान राम और माता जानकी ने भी यहां राजा दशरथ के लिए पिंडदान किया था लेकिन फल्गु ने सोचा कि रावण का वध करने वाले राम अगर उसके जल का स्पर्श करते हैं तो ब्रह्महत्या उसे अपवित्र कर देगी, इस आशंका में वह अदृश्य हो गई लेकिन सीता से यह रहस्य छिपा न रहा और उसने फल्गु का जलहीन होने का शाप दिया लेकिन भगवान राम ने इसका उपशमन यह कहकर किया कि जब भी कोई व्यक्ति बालू में गड्ढा खोदेगा तो उसे तर्पण भर जल फल्गु से प्राप्त हो जाएगा। तब से लेकर आज तक फल्गु सूखी ही है। बरसात के दिनों में ही बस उसमें पानी नजर आता है।
पितृपक्ष को लेकर एक और कथा आती है जो पितरों के महत्व का प्रतिपादन करती है। एक बार जरत्कारु नामक मुनि कहीं जा रहे थे। राह में एक कुए में उन्होंने कुछ लोगों को उलटा लटककर विलाप करते देखा। उन्होंने पूछा कि वे कौन है। उन लोगों ने कहा कि वे जरत्कारु के पूर्वज हैं। उसके अलावा उनके कुल में कोई नहीं बचा है।
वह भी मुनि हो गया है। हमें जल देने वाला कोई नहीं रहेगा, इसलिए हम विलाप कर रहे हैं। जरत्कारु नेकहा कि मैं आप लोगों के दुखों के उपशमन हेतु विवाह करूंगा लेकिन उसी युवती के साथ जो मेरे नाम से मिलती जुलती होगी और जिस दिन वह मेरा कोई अप्रिय करेगी, मैं उसे त्याग कर फिर संन्यास पर चला जाऊंगा। जरत्कारु का विवाह जरत्कारी से हुआ।
जरत्कारी ने एक दिन संध्यावंदन का समय हो जाने की वजह से जरत्कारु को सोते से जगा दिया और इतनी सी बात पर जरत्कारु मुनि भडक गए और वे उसे छोडकर जंगल में तपस्या करने चले गए। जरत्कारी ने आस्तीक नाम के एक बच्चे को जन्म दिया जिसने जन्मेजय के यज्ञ से सर्पों की रक्षा की। सर्पों ने उन्हें वचन दिया कि जो भी जरत्कारु, जन्मेजय, आस्तीक में से किसी का भी नाम लेगा, उसे लोक में सर्पभय नहीं रहेगा।
जन्मेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीक वचनं स्मर। आस्तीकस्य वचरू श्रुत्वा यो सर्पो न निवर्तते शतधा भिद्यते जन्मेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीक वचनं स्मर। आस्तीकस्य वचरू श्रुत्वा यो सर्पो न निवर्तते शतधा भिद्यतेमूध्र्निश्ंशि वृक्ष फलं यथा।
एक और कथा आती है कि पितरों के श्राद्ध का भांड उलट देने से ऋषि उद्दालक ने अपनी पत्नी चंडी को शिला होने का शाप दिया था जिसका उद्धार युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के स्पर्श से तब हुआ जब अर्जुन ने उस शिला को छुआ।
गया, कुरुक्षेत्र, प्रभास,प्रयाग और काशी के अतिरिक्त धरती पर और भी कुछ स्थान हैं जहां श्राद्ध करने से पितरों को अक्षय तृप्ति होती है। पहला है सीतापुर जिले में नैमिषारण्य। यहां चक्रतीर्थ के जल में स्नान करने, पितरों को तिलोदक देने और पिेंडदान करने से उन्हें अक्षय तृप्ति मिलती है।
योगिनी तंत्र के अनुसार गया में 21 बार श्राद्ध और तर्पण करने का जितना फल मिलता है, उतना ही फल नैमिषारण्य के चक्रतीर्थ पर पिंडदान और तिलांजलि देने से मिलता है। चक्रतीर्थ में स्नान कर विधाता की पूजा करने से साधक की दस पीढियों के पाप नष्ट हो जाते हैं। स्कंद महापुराण के मुताबिक हरिशयन और प्रबोधनकाल में जो नैमिषारण्य में तप और श्राद्ध करता है, उसके पूर्वज कल्प पर्यन्त स्वर्ग का सुखोपभोग करते हैं।
विष्णु पुराण में लिखा है कि नैमिषारण्य में अगर पितरों का तर्पण किया जाए तो सुखों की प्राप्ति होती है। गरुड़पुराण में नैमिषारण्य को पुण्यदायक और मुक्तिदायक क्षेत्र माना गया है। इसके अतिरिक्त नर्मदा नदी जिसके दर्शन मात्र से जीव को मुक्ति मिलती है।
उसी के तट पर स्थित भृगु पर्वत पर लम्हेटी गांव में त्रिशूलभेद में भोगवती, मंदाकिनी और सरस्वती का पवित्र संगम है, यहां अंधकासुर के वध के बाद भगवान शिव के त्रिशूल का शुद्ध करने के लिए देवता सभी तीर्थों का जल लाए इसके बाद भी जब त्रिशूल शुद्ध नहीं हुआ तो उसे शुद्ध करने के लिए तीनों नदियां प्रकट हुई। यहां एक दिव्य शिवलिंग है। नर्मदा पुराण के मुताबिक इस संगम में पितरों का पिंडदान करने पर 21 पीढ़ी आगे और 21 पीढ़ी पीछे के पितरों का उद्धार हो जाता है।
इस स्थान पर काशीनरेश के पुत्र की अस्थियों के विसर्जन का भी प्रसंग मिलता है। पितृपक्ष में मातृकुल और पितृकुल के पितरों को नाम लेकर जल देना चाहिए, इससे उनकी प्रसन्नता सहज ही प्राप्त होती है। ऐसा माना जाता है कि पितृगण मघा और मूल नक्षत्र के निवासी हैं। नंदन कानन की तरह वायुमंडल में पितृकानन भी है।
वेदों में बृहस्पति, वरुण और प्रजापति को भी पितर कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने तो अर्यमा को अपना स्वरूप करार दिया था। गीता के दसवें अध्याय में उन्होंने कहा कि पितृणाम अर्यमाचास्मि,यमरू संयतामहम। यम अर्थात नियम, उपनियम। जो अपने पूर्वजों से प्रेम करता है, उसके लिए संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है।
सियाराम पांडेय शांत
(लेखकः स्वतंत्र स्तम्भकार हैं)