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एक रहस्य ही बनी हुई है गुरूदत्त की मौत - Sabguru News
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एक रहस्य ही बनी हुई है गुरूदत्त की मौत

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 guru dutt birth anniversary
Maestro Director guru dutt birth anniversary

मुंबई। भारतीय सिनेमा जगत में गुरूदत्त को एक ऎसे बहुआयामी कलाकार के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने फिल्म निर्माण,निर्देशन, नृत्य निर्देशन और अभिनय की प्रतिभा से दर्शकों को अपना दीवाना बनाया।…

वर्ष 1951 में प्रदर्शित देवानंद की फिल्म बाजी की सफलता के बाद गुरूदत्त बतौर निर्देशक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए। इस फिल्म के निर्माण के दौरान उनका झुकाव पाश्र्वगायिका गीता राय की ओर हो गया और वर्ष 1953 में गुरूदत्त ने उनसे शादी कर ली। वर्ष 1957 में गुरूदत्त और गीता दत्त की विवाहित जिंदगी में दरार आ गई। इसके बाद गुरूदत्त और गीता दत्त अलग अलग रहने लगे।

इसकी एक मुख्य वजह यह भी रही कि उस समय उनका नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था। गीता राय के अलग होने के बाद गुरूदत्त टूट गए और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे में डूबो दिया। 10 अक्तूबर 1964 को अत्यधिक मात्रा मे नींद की गोलियां लेने के कारण गुरूदत्त इस दुनिया को सदा के लिए छोड़ कर चले गए। उनकी मौत आज भी सिनेप्रेमियों के लिए एक रहस्य ही बनी हुई है।

कर्नाटक के बेंगलूरू शहर में 9 जुलाई 1925 को एक मध्यमवर्गीय बाह्मण परिवार में जन्में गुरूदत्त मूल नाम वसंत कुमार शिवशंकर राव पादुकोण का रूझान बचपन के दिनों से ही नृत्य और संगीत की तरफ था।

उनके पिता शिवशंकर पादुकोण एक स्कूल मे प्रधानाध्यापक थे जबकि उनकी मां भी स्कूल मे ही शिक्षिका थीं। गुरूदत्तने अपनी प्रांरभिक शिक्षा कलकत्ता शहर मे रहकर पूरी की। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से उन्हें मैट्रिक के बाद अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। संगीत के प्रति अपने शौक को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने चाचा की मदद से पांच साल के लिए छात्रवृत्ति हासिल की और अल्मोडा के उदय शंकर इडिया कल्चर सेंटर मे दाखिला ले लिया, जहां वह उस्ताद उदय शंकर से नृत्य सीखा करते थे। इस बीच गुरूदत्त ने टेलीफोन ऑपरेटर के रूप में भी एक मिल में काम भी किया। उदय शंकर से पांच साल तक नृत्य सीखने के बाद गुरूदत्त पुणे के प्रभात स्टूडियो मे तीन साल के अनुबंध पर बतौर नृत्य निर्देशक शामिल कर लिए गए। साल 1946 में गुरूदत्त ने प्रभात स्टूडियो की निर्मित फिल्म हम एक हैं से बतौर कोरियोग्राफर अपने सिने कैरियर की शुरूआत की।

इस बीच गुरूदत्त को प्रभात स्टूडियो निर्मित कुछ फिल्मों मे अभिनय करने का मौका भी मिला। प्रभात स्टूडियो के साथ किए गए अनुबंध की समाप्ति के बाद गुरूदत्त अपने घर मांटूगा लौट आए। इस दौरान वह छोटी कहानियां लिखने लगे जिसे वह छपने के लिए प्रकाशक के पास भेज दिया करते थे। इसी दौरान उन्होंने प्यासा की कहानी भी लिखी, जिस पर उन्होंने बाद में फिल्म भी बनाई।

वर्ष 1951 में प्रदर्शित देवानंद की फिल्म बाजी की सफलता के बाद गुरूदत्त बतौर निर्देशक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए। इस फिल्म के निर्माण के दौरान उनका झुकाव पाश्र्वगायिका गीता राय की ओर हो गया और वर्ष 1953 में गुरूदत्त ने उनसे शादी कर ली। वर्ष 1952 में अभिनेत्री गीताबाली की बड़ी बहन हरिदर्शन कौर के साथ मिलकर गुरूदत्त ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र मे भी कदम रख दिया लेकिन वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फिल्म बाज की नाकामयाबी के बाद गुरूदत्त ने स्वयं को उनके बैनर से अलग कर लिया और इसके बाद उन्होंने अपनी खुद की फिल्म कंपनी और स्टूडियो बनाया जिसके बैनर तले वर्ष 1954 में उन्होंने आर पार फिल्म का निर्माण किया।

आरपार की कामयाबी के बाद उन्होंने बाद में सीआईडी, प्यासा, कागज के फूल, चौदहवीं का चांद और साहब बीवी और गुलाम जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया। गुरूदत्त ने कई फिल्मों की पटकथा भी लिखी जिनमें बाजी, जाल और बाज शामिल है। इसके अलावा उन्होंने लाखारानी, मोहन, गर्ल्स होस्टल और संग्राम जैसी कई फिल्मो का सहनिर्देशन भी किया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म बाज के साथ गुरूदत्त ने अभिनय के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और इसके बाद सुहागन, आरपार, मिस्टर एंड मिसेज 55, प्यासा, 12ओ क्लाक, कागज के फूल, चौदहवी का चांद, सौतेला भाई, साहिब बीवी और गुलाम, भरोसा, बहूरानी, सांझ और सवेरा तथा पिकनिक जैसी कई फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया।

वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म आरपार की कामयाबी के बाद गुरूदत्त की गिनती अच्छे निर्देशकों में होने लगी। इसके बाद उन्होंने प्यासा और मिस्टर एंड मिसेज 55 जैसी अच्छी फिल्में भी बनाई। वर्ष 1959 में अपनी निदेर्शित फिल्म कागज के फूल की बॉक्स आफिस पर असफलता के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि भविष्य में वह किसी और फिल्म का निर्देशन नहीं करेंगें। ऎसा माना जाता है कि वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म साहिब बीबीऔर गुलाम हालांकि गुरूदत्त ने ही बनाई थी लेकिन उन्होंने इसका श्रेय फिल्म के कथाकार अबरार अल्वी को दिया।

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