प्रकृति जब बंसत ऋतु का श्रृंगार कर अपने पूर्ण योवन की दहलीज पर कदम रखती है तो ऐसा लगता है कि वह प्रकृति रूप का एक सागर बन गई है तथा इसमे कई हजारों कमल खिल रहे हैं।
प्रकृति अपने सपनों को साकार करने के लिए ज्योंही एक कदम आगे बढाती है तब उसे गर्माहट महसूस होती है और देखते ही देखते रूप का वो सागर जलकर राख हो जाता है और बसंत ऋतु की यह दुर्दशा देख ग्रीष्म ऋतु मुस्कुरा जाती है और दुनिया को यह संदेश देती है, ये दिन हमेशा नहीं रहेगे। यह सृष्टि निरन्तर परिवर्तनशील है और सदा ही रहेगी।
एक समूह बना असत्य ओर मिथ्या भाषण कर, सभी को गुमराह कर झूठ का साम्राज्य बनाना।दूसरों को नीचा दिखाकर दूसरों की असफलता से उन्हें जलील कर अपने आप को अन्धेरे का दीपक बता कर अपनी हीन संस्कृति का परिचय देना, यह सब सभ्यता व संस्कृति के गहरे नासूर है।
अपनी चुनौतियों की असफलता को भूतिया इत्र से दबाना। अपनी विद्वता के कुतर्क से सभी को मूर्ख समझना, यह सब हरकते आदिकाल से ही चली आ रही है।
मार्कण्डेय पुराण एक कथा मिलती है। एक बार देवराज इंद्र अपनी अप्सरा के साथ वन में क्रीड़ा कर रहे थे। वहा पर एकदम नारद जी आ गए। देवराज इंद्र ने तुरंत कहा हे देव इनमे से किस के साथ संगीत सुनना चाहते हैं।
नारद जी ने तुरंत पलटवार करते हुए कहा कि इनमे से जो अप्सरा दुर्वासा ऋषि को सन्तुष्ट कर दे। मैं भी उसी का संगीत सुनना चाहूंगा। सभी अप्सराओं ने मना कर दिया लेकिन एक वपु नामक अप्सरा ने कहा कि मै दुर्वासा को संतुष्ट कर दूंगी।
वह अप्सरा दुर्वासा ऋषि के पास गई ओर मधुर संगीत गाने लगी। अप्सरा की यह हरकत देख दुर्वासा को गुस्सा आ गया और वपु अप्सरा को श्राप दे दिया कि तू अब से पक्षी की योनि मे रहेगी तथा चार बच्चों को जन्म लेकर शस्त्र से मरेगी तब ही तेरा मोक्ष होगा। इतना कहकर दुर्वासा वहा से चल दिए।
तपस्वी पुरूष अपने ईमान से नहीं गिरते क्योंकि वो वास्तव में परमात्मा के अंश होते हैं और परमात्मा की आरती उतारने के सही मायने में वे ही आरती के दीपक होते हैं। उनका शरीर दीपक, रूई मन व तेल उसका तप होता है।
सौजन्य : भंवरलाल