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मीडिया बौद्धिक अथवा सामाजिक आतंकवाद का जनक‏? - Sabguru News
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मीडिया बौद्धिक अथवा सामाजिक आतंकवाद का जनक‏?

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मीडिया बौद्धिक अथवा सामाजिक आतंकवाद का जनक‏?
terrorism and the indian media
terrorism and the indian media
terrorism and the indian media

मीडिया वो माध्यम जो हमें देश विदेश में होने वाली घटनाओं से रूबरू कराता है। आज मीडिया हाईटेक हो गया है, इन्टरनेट और सोशल मीडिया ने लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को नए आयाम दे दिए हैं।

ग्लोबलाइजेशन का सर्वाधिक असर शायद मीडिया पर ही पड़ा है जिसने खबरों के प्रस्तुतीकरण एवं प्रसारण को विविधता प्रदान की है। आज खबर को सबसे पहले प्रस्तुत करने का क्रेडिट लेने के लिए मीडिया की प्रतिस्पर्धा एक दूसरे से न होकर समय से हो रही है।

एक समय था जब खबरें प्रकाशित होती थीं तो मीडिया समाज में घटित होने वाली घटनाओं का दर्पण ही नहीं होता था अपितु जागरूकता फैलाने का काम भी करता था। वह समाज के प्रति अपने कर्तव्य को भली भाँति समझ कर उसका निर्वाह भी करता था। यह काम देश और समाज की सेवा का साधन था कमाई का नहीं। अखबारों की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता होती थी।

आज उपभोक्तावाद संस्कृति है हर क्षेत्र का व्यवसायीकरण हो गया है और मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह गया है। आज खबरें बिकती हैं और नहीं है तो बनाई जाती हैं। आज खबरों का आधार देश और समाज के लिए क्या अच्छा है, यह न होकर यह है कि लोगों को क्या अच्छा लगेगा, क्योंकि जो अच्छा लगेगा वह ही तो बिकेगा।

आज हर अखबार, हर चैनल स्वयं को प्रस्तुत करता है न कि खबर को। क्या मीडिया का कोई सामाजिक सरोकार नहीं है? देश की सुरक्षा केवल सरकार या सुरक्षा बलों की जिम्मेदारी है? आज जिस प्रकार मीडिया देश और समाज को बांटने का काम कर रहा है उससे यह सोचने पर विवश हूँ कि हम बँटे हुए लोग देश को एक कैसे रख पाएंगे?

मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तम्भ कहा जाता है आम जनता की आवाज शासन तक पहुंचा कर उसके सुख दुख का साथी बन सकता है। लोकतंत्र के बाकी तीन स्तम्भों न्याय पालिका,कार्य पालिका और विधायिकी के क्रिया कलापों पर तीखी नज़र रख कर उन्हें भटकने से रोक कर सही राह पर चलने की प्रेरणा दे सकता है।

हमारे देश में मीडिया को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है क्या वह इस आजादी का उपयोग राष्ट्र व जनहित में कर रहा है? क्या वह ईमानदारी से काम कर रहा है?आज कल जिस प्रकार से मीडिया द्वारा खबरों का प्रस्तुतीकरण किया जा रहा है वह इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए विवश कर रहा है।

हाल ही में मालदा और जेएनयू प्रकरण में जिस प्रकार मीडिया बंटा हुआ दिखा क्या वह स्वयं तो भ्रष्ट तो नहीं हो गया? देश और जनता से ज्यादा अपनी टीआरपी और कमाई पर ध्यान नहीं दे रहा? समाचार पत्रों में हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार आदि घटनाओं का प्रकाशन एवं टीवी चैनलों पर “वारदात” और” सनसनी” जैसे कार्यक्रमों के प्रसारण से क्या मीडिया अपने कर्तव्यों को चरितार्थ कर रहा है? इन मुद्दों से वह पाठकों या दर्शकों का किस विषय पर ज्ञान बढ़ा कर जागरूकता पैदा कर रहा है?,

इसकी क्या उपयोगिता है? क्या इस सब से हमारे बच्चों को अवांछित जानकारियां समय से पूर्व ही नहीं मिल रही? समाज में लोग सामाजिक कार्य भी करते हैं, समाज की उन्नति की दिशा में कई संस्थाएं एवं संगठन निरन्तर कार्यरत हैं अगर इनकी खबरों को प्रकाशित किया जाए तो क्या बेहतर नहीं होगा? पूरे समाज में एक सकारात्मकता का प्रवाह नहीं होगा? लोगों को इस विषय में सोचने एवं करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी?

आखिर जो भी हम पढ़ते सुनते या देखते हैं वह हमारे विचारों को बीज एवं दिशा देते हैं। अगर मीडिया सकारात्मक प्रेरणादायक खबरों पर जोर दे तो पूरे समाज और राष्ट्र की सोच और दिशा बदलने में यह एक छोटा ही सही किन्तु एक महत्वपूर्ण और ठोस कदम साबित नहीं होगा!

यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि देश में आज भी अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को समझने वाला मीडिया और उससे जुड़े लोग हैं जिनके कारण इन कठिन हालात में रोशनी की किरण दिखाई देती है। नहीं तो जिस प्रकार देश के ख्याति प्राप्त पत्रकार स्वयं को देशद्रोही घोषित कर के देश भक्ति की नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं यह बेहद चिंता का विषय है कि आज पत्रकारिता की दिशा और दशा किस ओर जा रही है?

राजनीतिक पार्टियां तो हर मुद्दे पर राजनीति ही करेंगी लेकिन मीडिया को तो निष्पक्ष होना चाहिए। हर घटना में शामिल व्यक्ति की पहचान उसकी जाति के आधार पर क्यों दी जाती है मीडिया के द्वारा, क्या उसका भारत का आम नागरिक होना काफी नहीं है?

याकूब मेमन और अफजल गुरु की फांसी का मुद्दा ही लें मीडिया में पूरी बहस उसकी सजा को लेकर, न्याय प्रक्रिया को लेकर चलती रही जबकि यह तो सरकार और न्यायप्रणाली के अधिकार क्षेत्र में है।

मीडिया उनके काम में टांग न अड़ाकर अगर अपने स्वयं के कर्तव्यों का निर्वाह भलीभांति करता-इन आतंकवादियों द्वारा किए कृत्यों के परिणाम जनता को दिखाता, जो हमारे देश का नुकसान हुआ, जो हमारे जवान शहीद हुए, जो आम लोग मारे गए, जो परिवार बिखर गए, जो बच्चे अनाथ हो गए, उनके दुख जनता को बताता न्यायालय का फैसला जनता को सुनाता न कि फैसले पर बहस, तो शायद देश इस मुद्दे पर बंटता नहीं।

अभी पठानकोट एयर बेस हमले में मीडिया जो पूरी घटना का विश्लेषण करने में लगा था स्वयं एक जांच एजेंसी बनकर क्यों? कैसे? आगे क्या? जैसे विषयों को उठाकर सनसनी फैलाने का काम करता नजर आया बजाय इसके अगर वो इस हमले में शहीद सैनिकों के बारे में विस्तार से बताता, उनके परिवारों के त्याग की ओर देश के आम आदमी का ध्यान आकर्षित करता और हमारे देश को इससे होने वाले नुकसान के बारे मे बताता।

यह बताता कि एक कमान्डो तैयार करने में कितनी मेहनत, लगन, परिश्रम और पैसा खर्च होता है तो न सिर्फ हमारे इन शहीदों को सम्मान मिलता बल्कि देश का बच्चा बच्चा देश के प्रति दुर्भावना रखने वाले से नफरत करता और देश के दुशमनों के लिए उठने वाली सहानुभूति की आवाजों को उठने से पहले ही कुचल दिया जाता।

यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि इस देश के शहीदों को साल में सिर्फ एक बार याद किया जाता है,उनके परिवारों को भुला दिया जाता है और आतंकवादियों के अधिकारों के लिए कई संस्थाएँ आगे आ जाती हैं। दरअसल खबरों का प्रसारण एवं प्रस्तुतीकरण एक सोची समझी रणनीति के तहत होता है कि किस खबर को दबाना है और किसको उछालना है किस घटना को कौन सा मोड़ देना है आदि आदि।

जिस प्रकार जेएनयू प्रकरण और रोहित वेमुला की घटना को प्रस्तुत किया गया सम्पूर्ण मीडिया दो खेमों में बंटा दिखाई दिया। जिस प्रकार तर्कों और कुतर्कों द्वारा घटनाओं का विशलेषण मीडिया कर रही है वह एक नए प्रकार के आतंकवाद को जन्म दे रहा है -“बौद्धिक अथवा सामाजिक आतंकवाद”। बौद्धिक क्योंकि यह हमारे विचारों पर प्रहार कर रहा है और सामाजिक क्योंकि यह क्रियाएँ भारतीय समाज को अन्दर से तोड़ रही हैं और मीडिया इसमें चिंगारी को सोशल विस्फोट में बदलने का काम कर रहा है।

यह बात मैं इतने ठोस तरीके से इसलिए कह रही हूं क्योंकि आज जब यह तथ्य निकल कर आया है कि रोहित वेमुला दलित था ही नहीं और मीडिया ने इसे दलित उत्पीड़न का मामला बताया था तो मीडिया की विश्वसनीयता तो कठघड़े में आयेगी ही।

इसी प्रकार जेएनयू प्रकरण में दो वीडियो जो डाक्टरड पाए गए ये कहां से और कैसे आए? मीडिया ने बिना तथ्यों को जांचे इन्हें क्यों और कैसे प्रसारित कर दिया? जिस मीडिया के ऊपर पूरा देश निर्भर है जिसके द्वारा दिखाई गई खबरें विदेशों तक में पहुंचती हैं क्या अपनी विश्वसनीयता बनाकर रखना उसका स्वयं का दायित्व नहीं है?

आज समय की मांग है कि मीडिया को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराया जाए जो खबरें वो दिखा रहे हैं उनको तथ्यात्मक सत्यता की कसौटी पर परखने के बाद ही वे उनका प्रकाशन अथवा प्रसारण करें।जो चैनल अथवा समाचार पत्र अपने द्वारा दी गई खबर की जिम्मेदारी नहीं लेता उस पर दण्डात्मक कार्यवाही की जाए।

मीडिया की जवाबदेही निश्चित करने के लिए एक ठोस कानून बनाया जाए ताकि हमारे लोकतंत्र में जो अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है उसका उपयोग स्वयं लोकतंत्र के खिलाफ इस्तेमाल नहीं हो।
: डॅा नीलम महेंद्र