पढिए खूब पढिए पर हंसना मना है। हंस गए तो आगे पढना मुश्किल होगा। कोई बात नहीं एक बार कोशिश तो करिए, बात दरअसल गधे की है। कई लोग इसे निरीह पशु मानते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। गधा होने के कई फायदे हो सकते हैं। नौकरी-पेशा लोग जानते हैं।
कहावत भी है -अफसर मेहरबान तो गधा पहलवान। अफसर की नज़र इनायत हुई नहीं, गधे की चाल और चरित्र में क्रांतिकारी बदलाव आने शुरू हो जाते हैं। ऐसा गधा अखाड़े में उतरे बिना ही अकड़ के चलने लगता है। काम में मन नहीं लगता। लेकिन हरदम खुद को व्यस्त बताने लगता है। अफसर की कृपा प्राप्त गधे कर्णधार बन जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि गधत्व ऐसी सिद्धी है जिसे हर कोई नहीं पा सकता। कठिन तपस्या करनी पड़ती है। हां में हां मिलाना। छोटी-मोटी चाकरी करते रहना। चुगली करना। अफसर के अफसर को अपना लंगोटिया बताना। ऐसे कई अनुष्ठान से गधापन निखरता रहता है।
चापलूसी और चौकन्नापन ऐसे गधों की चरित्रगत विशेषता होती है। अफसर की कमजोरी को ऐसे गधे फट से ताड़ लेते हैं।
नकारा और ढपोरशंख होने के बावजूद ऐसे गधे तरक्की के हाईवे पर सरपट दौड़ने लगते हैं। किसी को आसपास फटकने तक नहीं देते। हरदम दुलत्ती झाड़ते रहते हैं। जो चपेट में आया, वो कहीं का नहीं रहता। न घर का, न घाट का।
तो फागुन के इस मौसम में अपना मन भी गधा बनने को बौरा रहा है। दिन में कई बार आइना देखने लगा हूं। अपनी और गधे की शक्ल में संभावित समानता तलाशता हूं। रात में गधों के सपने आने लगे हैं। कई बार चलते-चलते गधे की तरह पैर से धूल भी उड़ा देता हूं। पर तमाम कोशिश के बाद भी गधे जैसा परफैक्शन नहीं आया। गधा बनना कोई हंसीखेल नहीं है।
बाजार में मर्द जैसे दिखने के लिए आपको कई तरह के लोशन, क्रीम, तेल, गोली, कैप्सूल मिल जाएंगे। प्लास्टिक सर्जरी भी हो सकती है। अफसोस इस बात का है कि कुत्तों के लिए बाजार में कई स्टोर खुल गए जहां पौष्टिक बिस्कुट से लेकर गले के पट्टे और चेन समेत कई चीजें मिलती हैं।
पर लाख कोशिश के बाद भी महानगर जैसे शहर में गधों के सामान की एक दुकान नहीं मिली। अब, जबकि हर प्रयास विफल हो गया तो निराश होना स्वाभाविक है। इसके बाद भी एक महान नेता की कविता हार नहीं मानूंगा … संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा दे रही है। इस जन्म में नहीं, अगले में सही।
इति।