रांची। आप इन लोगों को यहां न लाते तो ठीक था। क्यों लाएं इन्हें, भला यह रोने धोने का वक्त है या खुशी मनाने का, जरा उधर देखिए, उस सामने वाली बैरक में। उसमें तीन सगे भाई कैद हैं, एक ही माता-पिता की संतान हैं, तीनों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है।
जानते हैं क्यों, खेत की मेड़ के झगड़े में दो लोगों की जान लेने का इल्जाम है तीनों पर। अगर वे तीनो भाई एक मेड़ के पीछे जान दे सकते हैं तो मुझे तो भारत की आजादी अंग्रेजों से छीन लेने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई है, क्या यह मकसद फक्र करने लायक नहीं है और क्या इसमें अपनी जान कुर्बान कर देना खुशी का वायस नहीं है। फिर क्यों रो रहे हैं।
हजेला साहब, इन्हें तो खुशी मनानी चाहिए कि इनका छोटा भाई और चाचा देश के लिए अपनी जान कुर्बान करते हुए फांसी पर चढ़ रहा है। इन्हें बताइये कि मुसलमानों में अकेला मैं ही ऐसा खुशनसीब हूं जो क्रान्तिकारी केस में फांसी चढ़ूंगा।
यह सब कहा था अशफाक उल्ला खां ने जिन्हें काकोरी कांड में फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी और सजा से दो दिन पहले वकील कृपाशंकर हजेला के साथ उनका भाई यासतउल्ला खां और चाचा शहंशाह खां जेल में मिलने आए थे। चाचा और भाई की आंखों में आंसू थे।
शहीद अशफाक को 19 दिसम्बर 1927 की सुबह फैजाबाद जेल में फांसी दे दी गई थी। काकोरी स्टेशन पर क्रान्तिकारियों ने सरकारी खजाने पर डाका डाला था और हथियार लूट लिए थे। इस मुकदमे में दस क्रान्तिकारियों को सजा हुई थी, जिसमें चार पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिरी, रौशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनायी गयी थी।
पठान परिवार में जन्में अशफाक उल्ला खां खूबसूरत नौजवान थे, इनके बड़े भाई भोपाल रियासत के उच्च पद पर थे। उनकी बंदूक से ही अशफाक ने बचपन में निशाना साधना सीखा था। परिजन तो यही चाहते थे कि अशफाक पढ़ लिखकर किसी ऊंचे ओहदे पर काम करें लेकिन आठवी तक पढ़ने के बाद देशप्रेम की लगन ने स्कूल छुड़ा दी और उनका संबंध क्रान्तिकारी बिस्मिल से हो गया।
उस वक्त पंडित रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी षडयंत्र केस में फरारी काट रहे थे। जब अशफाक ने पहली बार बिस्मिल से अपने साथ शामिल करने को कहा तो उन्होंने टाल दिया था लेकिन उनके ढृढ़ संकल्प को देखकर अपने क्रान्तिकारी दल में शामिल कर लिया। उसके बाद तो बिस्मिल, आजाद और अशफाक की टोली ने मिलकर नौजवानों को अपने साथ जोड़ा और उनके मन में आजादी की आग जलाई।
अशफाक उल्ला खां तो बिस्मिल को अपना नेता और पथ प्रदर्शक मानते थे। पंडित बिस्मिल आर्यसमाजी हिन्दू थे और जेल में भी किसी के हाथ का बनाया भोजन नहीं खाते थे लेकिन दोनों में कोई भेद नहीं था, दोनों अपने आप को कौम का एक अनुशासित इंकलाबी सिपाही मानते थे। अदालत ने भी अशफाक को बिस्मिल का लेफ्टीनेंट कहते हुए ही फांसी की सजा सुनाई थी।
सच्चाई तो यही है कि क्रान्तिकारियों, बलिदानियों की न तो कोई जाति होती है, न ही वर्ग, न पंथ या सम्प्रदाय। उनके जीवन का एकमात्र मूलमंत्र होता है समाज और राष्ट्र का कल्याण। न तो उन्हें मोक्ष की कामना होती है और न ही किसी किस्म का मोह। आज देश भर में सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बहस चल रही है लेकिन अगर उन बलिदानियों के जीवनमूल्यों को देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि उस वक्त भी अगर ऐसी ही सियासत होती तो वे हंसते-हंसते फांसी का फंदा नहीं चूमते।
यह भी कहा जा सकता है कि अगर आज की तारीख में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल या अशफाक जिन्दा होते तो वे क्या सोचते। उनके लिए तो पहले देश, तब समाज, परिवार या खुद का जीवन था। लेकिन इस सियासत के बारे में अब कौन क्या कहे, हर कोई अपनी राजनीति की रोटी सेंकने में लगा है।
काकोरी कांड के बाद अशफाक फरारी काटते हुए कभी बनारस तो कभी डालटनगंज तो कभी मथुरा घूमते रहे। इसी क्रम में वे एक दफ्तर में नौकरी करने लगे और फिर मौका लगते ही दिल्ली पहुंच गए, जहां उनकी भेंट बचपन के एक दोस्त से हो गई। वे उसके घर मे रहने लगे लेकिन वह दोस्त आस्तीन का सांप निकला, पुरस्कार की लालच में उसने पुलिस को खबर दे दी और अशफाक पकड़े गए।
ब्रिटिश सरकार के कई उच्चाधिकारियों ने अशफाक के मन में हिन्दू मुस्लिम की भावना जगाने की कोशिश की और सरकारी गवाह बनने का लालच भी दिया, लेकिन सारा प्रयास बेकार। आखिर अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी।
वे अच्छे शायर भी थे। जिस दिन अदालत ने फैसला सुनाया, अशफाक ने अपने दोस्तों को यह रचना सुनाई। ये पंक्तियां आने वाली पीढ़ियों के लिए मंत्र का काम करती रही और आगे भी करेंगी।
कोई आरजू नहीं है, है आरजू तो यह
रखदे कोई जरा सी, खाके वतन कफन में
(मेरे देश की थोड़ी सी धूल मेरे कफन में रख देना यह कहते हुए और कुरान शरीफ की आयते पढ़ते हुए वे फांसी के तख्ते पर चढ़ गए और शहीद हो गए।) देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले शहीदों की चिताओं पर मेले लगे या न लगे, कम से कम नौजवान पीढ़ी को उन बलिदानियों एवं क्रान्तिकारियों के इतिहास से वाकिफ तो कराया जाना चाहिए, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।