नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को बहुमत के आधार पर ऐतिहासिक फैसला देते हुए भारतीय मुस्लिम समुदाय में सैकड़ों वर्ष से प्रचलित तीन बार तलाक बोलकर एक झटके में निकाह तोड़ दिए जाने को असंवैधानिक व मनमाना करार दिया और कहा कि यह ‘इस्लाम का हिस्सा नहीं’ है।
हालांकि दो न्यायाधीशों द्वारा दिए अल्पमत फैसले में कहा कि तलाक-ए-बिदत मुस्लिम समुदाय के पर्सनल लॉ का मुद्दा है और यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन नहीं करता।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अलावा प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस सहित सभी दलों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं महिला संगठनों ने सराहना की।
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा करता है।
वहीं राजनीतिक दलों ने इस फैसले को मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने वाला और लैंगिक न्याय दिलाने वाला बताया।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में शामिल प्रधान न्यायाधीश जे. एस. खेहर और न्यायाधीश एस. अब्दुल नजीर ने अल्पमत का फैसला सुनाते हुए छह महीने के लिए एकसाथ तीन तलाक पर रोक लगा दी और कहा कि इस बीच सरकार को इस मुद्दे पर कानून बनाने पर विचार करना चाहिए।
उन्होंने साथ ही विभिन्न राजनीतिक दलों से अपील की कि वे अपने मतभेदों को भूलकर इससे संबंधित कानून बनाएं। संविधान पीठ में शामिल अन्य तीन न्यायाधीशों ने हालांकि न्यायाधीश खेहर और न्यायाधीश नजीर के फैसले से असहमति व्यक्त की।
न्यायाधीश खेहर, न्यायाधीश नजीर, न्यायाधीश रोहिंटन फली नरीमन, न्यायाधीश यू.यू. ललित और न्यायाधीश कुरियन जोसेफ वाली संसदीय पीठ ने अपने 395 पृष्ठ के फैसले में कहा कि तमाम पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 3:2 के बहुमत से तलाक-ए-बिदत (एक ही बार में तीन तलाक दिया जाना) को रद्द किया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला शायरा बानो, मुस्लिम संगठनों और चार अन्य महिलाओं की ओर से दायर याचिका पर सुनाया है।
बहुमत के फैसले में शामिल न्यायाधीश नरीमन और न्यायाधीश ललित ने कहा कि तीन तलाक एक ही बार में दिए जाने और इसे वापस न लिए जाने की स्थिति को देखते हुए, यह स्वाभाविक ही है कि पति और पत्नी के बीच उनके परिवार के किसी दो सदस्यों द्वारा मध्यस्थ के तौर पर मेल-मिलाप की किसी भी तरह कोशिश का कभी कोई स्थान हो ही नहीं सकता, जो वैवाहिक संबंधों को टूटने से बचाने के लिए जरूरी है।
उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि तलाक का यह स्वरूप साफ तौर पर मनमाना है, जो ऐसी भावना व्यक्त करता है कि किसी मुस्लिम पुरुष द्वारा वैवाहिक संबंध को टूटने से बचाने के लिए मेल-मिलाप की कोई कोशिश किए बिना मनमाने तरीके से और सनकपन में वैवाहिक संबंध को खत्म किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि इसलिए इस तरह तलाक दिए जाने को संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करने वाला माना जाना चाहिए। साथ ही तीनों न्यायाधीशों ने 1937 शरीयत अधिनियम को भी खत्म किए जाने की बात कही।
न्यायाधीश खेहर और न्यायाधीश नजीर से अलग विचार रखते हुए न्यायाधीश जोसेफ ने कहा कि पवित्र कुरान में जिसे बुरा कहा गया हो, वह शरीयत में अच्छा नहीं हो सकता और इसी तरह धर्मश़ास्त्रों में जिसे बुरा कहा गया हो, वह कानून की नजर में भी बुरा ही होगा।
न्यायाधीश जोसेफ ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश के इस तर्क पर सहमत होना बेहद मुश्किल है कि तीन तलाक को धार्मिक संप्रदाय का अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए और यह उनके पर्सनल लॉ का हिस्सा है।
उन्होंने कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई रिवाज सैकड़ों वर्षो से चली आ रही है और जबकि उस धर्म में उस रिवाज को साफ तौर पर अनुचित कहा गया हो, वह परंपरा वैधानिक नहीं मानी जा सकती।
न्यायाधीश खेहर ने वहीं कहा कि अदालत के यह उचित नहीं होगा कि विरोधी पक्ष द्वारा हदीस (मोहम्मद के वचन) में ढेरों विरोधाभास व्यक्त किए जाने के आधार पर इस बात का फैसला करे कि हदीस में तलाक-ए- बिदत की इजाजत है या नहीं।
उन्होंने कहा कि तलाक-ए-बिदत हनफी विचार मानने वाले सुन्नी मुस्लिमों में धार्मिक मान्याताओं का अभिन्न हिस्सा है। यह उनकी आस्था से जुड़ा हुआ है, जो 1,400 वर्षो से चली आ रही है और इसलिए इसे उनके ‘पर्सनल लॉ’ के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए।
न्यायाधीश खेहर ने कहा कि पर्सनल लॉ का हिस्सा होने के चलते यह मूल अधिकारों के समान है..इसलिए इस परंपरा को संवैधानिक नैतिकता की संकल्पना का उल्लंघन करने वाला कहकर न्यायिक हस्तक्षेप से खत्म नहीं किया जा सकता।
अल्पमत के फैसले में हालांकि यह भी कहा गया कि मुस्लिम महिलाओं की बहुत बड़ी आबादी तीन तलाक, जिसे धर्मशाोंस्त्रों में गलत कहा गया है, को कानूनन अस्वीकार्य घोषित किए जाने की मांग करती रही है।
अल्पमत के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धर्म आस्था का विषय है, न कि तर्क का, और कोई अदालत किसी पारंपरिक रीति-रिवाज के खिलाफ समानता के सिद्धांत को स्वीकार करवाने की जगह नहीं है।
उन्होंने कहा कि यह निर्धारित करना अदालत का काम नहीं है कि धार्मिक रीति-रिवाज तर्कसम्मत हैं या प्रगतिवादी हैं या रूढ़िवादी।
दो के मुकाबले तीन मतों से दिए अपने फैसले में कहा कि तीन तलाक को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है, क्योंकि यह मनमाना और सनक भरा है और इसके कारण पति-पत्नी में मेल-मिलाप की संभावनाएं खत्म हो जाती हैं और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन होता है।
पूरी दुनिया में मुस्लिम पर्सनल लॉ में हुए संशोधनों का उदाहरण देते हुए न्यायाधीश खेहर ने केंद्र सरकार से तलाक-ए-बिदत पर खासतौर पर उचित कानून बनाने पर विचार करने का निर्देश दिया। न्यायाधीश खेहर ने मुस्लिम पुरुषों से छह महीने तक एकसाथ तीन तलाक न देने का आदेश दिया।