पटना। होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता हैं। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहां भी धूम धाम के साथ मनाया जाता हैं।
बिहार में भी होली का अपना एक अलग ही अंदाज है। जहां एक ओर जोगिरा की थाप पर लोग नाचते झूमते दिखते हैं, वहीं होली के आधुनिक गीत शहर वासियों को झूमने पर मजबूर कर देते हैं। वैसे तो होली पर्व पूरे देश में मनाई जाती है, लेकिन बिहार में इसकी एक अलग पहचान है।
बिहार में होली के मौके पर गाए जाने वाले फगुआ “बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग खेले” या जोगिरा “कै हाथ का छोती लिया कै हाथ लपेटा, ‘कै घाट का पानी पिया कै बाप का बेटा’ की अपनी गायन शैली है।
कई स्थानों पर कीचड़ की होली भी इस पर्व को खास बनाती है। होली के दिन रंगों से सराबोर लोग ढोलक की धुन पर नृत्य करते लोकगीत गाते हुए आनंदित होते हैं और गांव के प्रत्येक घरों में पहुंचकर एक-दूसरे को रंग से सराबोर करते हुए उन्हें अपनी महफिल में शामिल कर लेते हैं।
प्रदेश में मिथिला की निराली होली के क्या कहने
रंग और उमंग के इस त्योहार में राम को याद किए बिना, उनके साथ रंग-अबीर उड़ाए बिना सीता के मायके की होली भला कैसे पूरी हो सकती है। होली के दिन हर दरवाजे पर लोग पारंपरिक होली गीत गाने जाते हैं, जिसका समापन सामाजिक शुभकामना से होता है-‘सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होली हो।’
बसंत पंचमी के बाद से ही गांवों में फाग गीत गाने के लिए डंफा की मरम्मत कराई जाती है। इसके बाद होलिया मूड में देर रात तक डंफे की धुन पर होली के गीत गूंजते रहते हैं। होली से एक दिन पूर्व अगजा जलाया जाता है। इस अगजा के ढेर को ऊंचा करने के लिए गांवों में तरह-तरह की तिकड़म कर लोग गाली भी सुनाते हैं, लेकिन इस गाली को भी लोग होली का आनंद ही मानते हैं।
लोग भांग का शर्बत, लस्सी, ठंडाई, खोयायुक्त भांग का पेड़ा और मालपुआ बनवा कर लोगों का स्वागत करते हैं। होली पर्व पर दूरदराज में नौकरी करने वाले लोग अपने गांवों की सोंधी मिट्टी-पानी संग त्योहार मनाने आते हैं।
कुर्ताफाड़ होली
बिहार में कुर्ताफाड़ होली का भी अपना एक अलग ही महत्व है। रंग के साथ भांग का नशा जब चढ़ता है तो लोग रंग के साथ मिट्टी और कीचड़ से भी होली का हुड़दंग मचाने लगते हैं। कुछ व्यक्ति दूसरी टोली को रंग लगाते हैं, तो कुछ एक-दूसरे के कपड़े फाड़ने में लगे रहते हैं।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद भी इस होली का भरपूर आनंद लेते हैं। बिहार में बुढ़वा होली मनाने की भी अपनी परंपरा है। होली के दूसरे दिन भी लोग कई इलाकों में बुढ़वा होली खेलते हैं। इस दिन लोगों की मस्ती दोगुनी होती है।
होली की इतिहासिक मान्यताओं के अनुसार होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।
विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं।
अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है।
16वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं।
मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें 17वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है।
बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदांत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएं गुलाल मल रही हैं।