नैनीताल। उत्तराखण्ड के मामले में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले में किस तरह से केन्द्र सरकार को फजीहत झेलनी पडी इसकी बानगी उत्तराखण्ड हाईकोर्ट में इस प्रकरण की सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियों में देखने को मिल जाती है।
बुधवार को मामले की सुनवाई के दौरान उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि राष्ट्रपति से भी गलती हो सकती है। जज से भी गलती हो सकती है। वह कोई राजा नहीं हैं कि उनके निर्णय को संवैधानिक समीक्षा नहीं की जा सकती है।
इससे पहले उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि केन्द्र सरकार राष्ट्रपति शासन लगाकर चुनी हुई सरकारों की शक्तियों को छीन रही है और अराजकता फैला रही है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि किसी सरकार को सदन में शक्ति परिक्षण के पवित्र अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
हाईकोर्ट की नैनीताल बैंच ने हरीश रावत के विधायकों से खरीद-फरोख्त के मुद्दे पर कहा कि भ्रष्टाचार और खरीद-फरोख्त के आरोपों के बाद भी किसी सरकार के लिए सदन में बहुमत का परिक्षण करना ही एकमात्र संवैधानिक उपाय है, इससे किसी सरकार को वंचित नहीं रखा जा सकता।
न्यायालय ने सोमवार को इसी मुद्दे पर चल रही बहस पर केन्द्र को फटकार लगाते हुए कहा था कि राज्यपाल केन्द्र सरकार का एजेंट नहीं है। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा था कि आपतकालीन शक्यिों को इस्तेमाल विशेष मामलों में किया जाना चाहिए। राज्य के मामलों में हस्तक्षेप केा हल्के में नहीं लिया जा सकता है।
इस मामले की सुनवाई करते हुए महीने के शुरूआत में उत्तरखण्ड उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार की हरीश रावत की राष्ट्रपति शासन को चुनौति देने वाली याचिका की सुनवाई टालने की अपील को भी खारिज कर दिया था।
उल्लेखनीय है कि राज्यपाल की ओर से 26 अप्रेल को हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित करने के बाद भी केन्द्र सरकार ने 27 अप्रेल को उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। केन्द्र के इस निर्णय को मुख्यमंत्री हरीश रावत ने हाईकोर्ट में चुनौति दी थी।