वीर सावरकर अपने क्रॉतिकारी कामों के लिये जाने जाते हैं, जो कि अंग्रेजों के विरूद्घ देश की आजादी के लिये चले संघर्ष के दौरान उन्होंने किये। पर समाजिक-क्षेत्र से जुड़े रचनात्मक कार्यो में भी उनका योगदान कोई कम नहीं।
वो तो असहनीय कष्टों के सम्मुख उनका अतुलित धैर्य और विस्मय में डाल देने वाले साहसिक कारनामों से युक्त उनका क्रांतिकारी जीवन इतना विलक्षण रहा कि उनके द्वारा किये गये अन्य काम महत्व पा ना सके। इनमें से जिस एक काम को याद किया जा सकता है वो है सामाजिक-समरसता को लेकर उनके द्वारा चलायी गयीं विविधताओं से भरी गतिविधियां।
धार्मिक, साथ ही समाजिक क्रिया-कलाप में जातिगत भेदभाव और छूआछूत को समाप्त करने के उद्देश्य से सामुहिक-भजन के आयोजनों को उन्होंने व्यापक स्तर पर शुरु करवाया।ये आयोजन जातपात के बंधन से मुक्त रहते। ये वो समय था जबकि जातीय उच्चता-निम्नता के आधार पर पाठशालाओं में विद्याथियों के बैठने की व्यवस्था एक सामान्य बात थी। ये बात सावरकरजी को बड़ी आहत करती।
इसके निवारण के लिये महाराष्ट्र में जगह-जगह प्रवास कर उन्होंने इसके विरूद्घ अभियान चलाया। जिससे कि पैसे के आभाव में निम्न जाति के गरीब बच्चे स्कूल जाने से वंचित ना रहने पाये, वे संपन्न वर्ग के लोगों से पैसे इक_ा करते और उनके लिये स्लैट, चाक, पुस्तक, गणवेश आदि की व्यवस्था करते; साथ ही बच्चों के अभिभावकों को भी आर्थिक मदद करते जिससे उनकी और से भी जरुरी प्रोत्साहन बच्चों को मिलता रहे।
दिवाली, दशहरा, होली जैसे उत्सव तो उनके लिये जहॉ महार, चर्मकार, वाल्मीकी समाज रहते उन बस्तीयों में प्रवास करने के अवसर के रुप में आते। इन उत्सवों को वे बस्ती के वासीयों के बीच मनाते, और साथ में अन्य उच्च जति के लोगों को जरुर रखते। सुखी और दीर्ध वैवाहिक जीवन की कामना पूर्ति के लिये महाराष्ट्र में स्त्रियां आपस में मिलकर हल्दी-कुंकु नाम का एक धार्मिक आयोजन करतीं हैं।
इस आयोजन को समाजिक समरसता का वाहक बनाते हुये वे इसे अपनी पत्नी, यमुनाबाई, के सहयोग से सभी जातियों की महिलाओं के बीच सामुहिक रुप से मनवाते। एक ‘पान-हिन्दु’ कैफे हाउस की शुरुआत भी उन्होंने की, जिसमें विशैष रुप से एक महार नवयुवक को देखरेख के लिये लगाया गया। जो भी सावरकर से मिलने आता उसके लिये जरुरी था कि वो पहले इस काफी हाउस में आकर महार के हाथों कुछ ग्रहण करे। छुआछूत के पालन को लेकर एक बड़ी ही विचित्र बात देखने को मिलती कि महार ये मानकर चलते कि यदि वो किसी वाल्मीकी के साथ भोजन कर लेंगे तो वे अपनी पवित्रता खो देंगे; तो दूसरी ओर वाल्मीकी भी चर्मकारों के प्रति इसी प्रकार की धारणा से पी$िढत थे।
मतलब ये कि उच्च जाति वालों के साथ तो सब बैठकर खाने को आतुर रहते, पर अपने ही समान निम्न जाति के साथीयों साथ जब खाने की बात आती तो यही आतुरता परस्पर हीनता का रुप धारण कर लेती। इसको दूर करने के लिये सावरकर नें बड़े पैमाने पर सर्वजाति-सहभोज का आयोजित करवाना शुरु किया। ऐसा ही एक सहभोज उन्होंने पतित-पावन मंदिर के परिसर में आयोजित करवाया जो कि अनेक कारणों से बड़ी चर्चा का विषय भी रहा।
रत्नागिरी में स्थित इस पतित-पावन मंदिर की स्थापना सावरकर नें धार्मिक क्रिया-कलाप में समाजिक-समरसता लाने के उद्देश्य से की थी। इस मंदिर में सभी जाति के बंधु-भगिनी आकर पूजा-पाठ व अन्य धार्मिक आयोजन आदि संपन्न कर सकते थे। ‘‘ वह जाति जिसके पास पहले से ही स्थापित मंदिरों की रक्षा करने की शक्ति नहीं वो नये मंदिरों के निर्माण का अधिकार खो चुकी है। इस मंदिर का उद्देश्य उस शक्ति को निर्मित्त करने का है।
आज केवल महार, चमार, य अन्य अछूत समाज ही पतित नहीं है, बल्कि पूरा हिन्दु समाज ही, जो कि विदेशी सत्ता का गुलाम हो चुका है, पतित है। मैं उसे पतितपावन कहुॅगा जो इस पूरे पतित हिन्दु राष्ट्र का उन्नयन करता हो। मैं केवल उसे पतित पावन कहुॅगा जो कि हिन्दुओं को वो सब बापस लौटाने वाला हो जो वे खो चुके हैं’’- मंदिर की अवधारणा के पीछे उनके ये विचार थे।