समाजशास्त्रियों के अनुसार सामाजिक समूहों में मिलजुलकर रहने के कारण मनुष्य को सामाजिक प्राणी की संज्ञा दी गई है. उनका मानना है कि मिलजुलकर रहने से सभी प्रकार के छोट – बडे समूहों में रहने वाले सामाजिक प्राणियों के बीच टकराव की स्थिति भी आती है.
परिणामत: इन छोटे – बडे समूहों के बीच विशेष प्रकार की मान्यताओं व विचारों का जन्म होता है जो कि कालांतर तक चलता रहता है. बुद्धिजीवियों के बीच चल रहे तरह – तरह के सामाजिक चिंतन को ही समाजशास्त्र के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है. जीवों की उत्पत्ति नामक पुस्तक के लेखक डार्विन के मन में भी विचार आया कि मानव – समाज का भी अध्ययन होना चाहिए और आगस्ट काम्ट, हर्बर्ट स्पेंशर जैसे समाजशास्त्रियों का मत रहा कि मानव समाज का अध्ययन रसायन और भौतिकी विज्ञान की तरह वैज्ञानिक तरीके से भी किया जा सकता है.
उनके इस चिंतन का विरोध भी हुआ क्योंकि कुछ चिंतकों का मत था कि मनुष्य की भावनाओं, ईच्छाओं व उसकी मान्यताओं को विज्ञान की कसौटी पर नही परखा जा सकता. इस विचार के आलोक में मैक्स बेबर, कार्ल मैनेहाईम जैसे विचारकों ने एक नए मिले – जुले विचार का प्रतिपादन किया. उनका मानना था कि समाज और मनुष्य को अलग – अलग स्वतंत्र सत्ता मानकर मानव – समाज का अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से किया जा सकता है. इन विचारकों के अनुसार एक तरफ समाज में पाए जाने वाले मूल्यों, विचारों व भावनाओं, संस्कृतियों तथा उनकी भावनाओं का अध्ययन किया जा सकता है तो दूसरी तरफ मानव के व्यक्तित्व का अध्ययन मनोवैज्ञानिक तरीके से किया जा सकता है.
स्वामी विवेकानन्द , पं. दीनदयाल उपाध्याय, माधव सदाशिव गोलवलकर ‘श्री गुरू जी’ जैसे अनेक भारतीय चिंतकों ने समाज का समग्रता पूर्वक अध्ययन कर समाज की एक नई अवधारणा के धागे में पिरोया जिसे सामाजिक समरसता के नाम से जाना गया. भारत के इन चिंतकों का मत था कि संसार की सभी जीवों में अपनी चिंतन शैली के कारण मनुष्य सर्वश्रेष्ठ जीव है और भारतीय मनीषियों ने मनुष्य़ के अंत:करण की शुद्धता और उसकी पवित्रता पर अत्याधिक जोर दिया है. इसलिए उन्होनें कहा कि मानव में मानवीयता का भाव सदैव रहना ही चाहिए. उसके प्रत्येक कार्य में समाज की भलाई ही सर्वोपरि होना चाहिए. इसकी चर्चा भारतीय वेद – पुराणों की श्रुतियों में मिलती है.
इतना ही नही उपासना हेतु बनाए गए देवालयों के पुजारी आज भी अपने ईष्ट की उपासना के पश्चात सभी सुखी हों, प्राणियों में सदभावना हो और विश्व का कल्याण हो नामक उदघोष लगवाते हैं. तात्पर्य यह है कि विश्व – कल्य़ाण हेतु मनुष्यों में परस्पर सदभावना का चिंतन होना चाहिए. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण विज्ञान की भाँति किसी भी प्रकार के घर्षण, क्रिया – प्रतिक्रिया की अपेक्षा उसका प्रत्येक दृष्टिकोण सामाजिक ही होना चाहिए.
अत: मोहनदास करमचन्द गांधी ने सर्वोदय और पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय का सिद्धांत दिया. सामाजिक सदभावना के इस आलोक में श्री गुरू जी ने पाया कि भारत के लोग अपनी मूल सिद्धांतों से दूर होते जा रहे हैं. उनमें परस्पर वैमनस्य का भाव निरंतर बढ रहा है. वर्ण – व्यवस्था की बुनियाद पर रखे गए स्वस्थ समाज की परिकल्पना को विभिन्न सामाजिक कुरीतियों ने घेर लिया है. समाज की वर्ण – व्यवस्था के सिद्धांत को कुछ प्रभावशाली लोगों ने जाति – प्रथा में बदल दिया है.
परिणामत: भारतीय समाज का ताना – बाना चरमरा गया. इतना ही नही जाति – प्रथा के आधार पर भारतीय समाज पर छुआछूत नामक एक वीभत्स रोग ने आक्रमण कर दिया है. हमारे समरस समाज में असमानता, ऊँच – नीच का ज़हर घोल दिया गया. इतना ही नही इन कुटिल प्रभावशाली लोगों के चलते हमारे समाज में से उसके स्वत्व – भाव का लोप करवाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. विश्व में कभी भारतीय संस्कृति का परचम लहराने वाली सभ्यता सामाजिक कुरीतियों के चलते मात्र नौकरी – चाकरी के उद्देश्य से विश्व में भ्रमण करने वाली बनकर रह गई.
अपनी इस व्यथा को श्री गुरू जी ने मुम्बई के सान्दीपनी साधनालय में जन्माष्टमी महोत्सव के दिन 29 अगस्त, 1964 को विश्व हिन्दू परिषद के गठन के शुभ अवसर पर प्रकट करते हुए कहा कि भारत के पूर्वकाल और आधुनिक काल का यदि हम अपनी आँखों के सामने रखें तो हमारे अंत:करण में यह बात दुखदायी होगी कि विश्व के कोने – कोने में हमारी संस्कृति का प्रभाव एक विजेता के रूप में था और पिछले सौ – डेढ सौ वर्षों में हम विश्व के कोने – कोने में मजदूर के रूप में चाकरी करने के उद्देश्य हीन प्रवृत्तियों को लेकर गए. इसी बैठक में मास्टर तारा सिंह ने त्तत्कालीन सामाजिक स्थिति का अवलोकन करते हुए बताया कि पंजाब में सिख और हिन्दुओं को अलग – अलग माना जाता है.
सिखों का उत्थान तभी संभव है जबतक हिन्दू धर्म जीवित है. हमें नही भूलना चाहिए कि सिख तो महान हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है. गुरू गोविन्द सिंह ने हिन्दू शास्त्रों और पुराणों से ही ज्ञान एवं दर्शन लेकर गुरुमुखी में उसका निरुपण किया. तात्पर्य यह है कि सनातन धर्म को मानने वाला भारतीय समाज वर्ष 1964 तक आते – आते बौद्ध, जैन, सिख जैसे कई पंथों में बँट चुका था और समाज में कई प्रकार की जातियाँ उत्पन्न हो चुकी थी जिसने कालांतर में परस्पर सामजिक वैमनस्य को ही बढाया. परिणामत: सामाजिक सदभाव की अत्यंत आवश्यकता और महत्ता को समझते हुए भारतीय चिंतकों ने भारत की समाज व्यवस्था की विभिन्न कुरीतियों को दूर करने का सदियों से चला आ रहा भारतीय पथ, सामाजिक सदभाव को अंगीकार किया.
महर्षि दयानंद के चिंतन ‘वेदों की ओर लौटो’ के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है. प्राचीन भारत में वर्ण – व्यवस्था नामक सामाजिक व्यवस्था से समाज का ताना – बाना बुना था. आज भी संसार के सभी देशों में समाज को सुचारू रूप से चलाने हेतु विभिन्न नामों से कोई न कोई व्यवस्था अवश्यमेव ही है. हमें ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार शरीर का कोई भी अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्व – हीन है अर्थात विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही शरीर का निर्माण करते है उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र रहकर अस्तित्व हीन ही है क्योंकि किसी भी मानव का स्थिति और उसका विकास समाज अर्थात सामूहिकता में ही होता है.
इसलिए हमें समाज के बारें में चिंतन करते समय उसके सामाजिक प्रारूप तथा उसके अंत:करण की शुद्धता को नही भूलना चाहिए. विज्ञान की भाँति हम समाज की अवधारणा को तो विज्ञान की तराजू पर तौल तो नही सकते परंतु भारत में सामाजिक समरसता को बढाने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार तथा अन्य गैर सरकारी सामाजिक संगठनों को इस दिशा में पहल करना चाहिए.
सामाजिक सामंजस्य के इस चिंतन को ध्यान में रखकर विश्व हिन्दू परिषद ने अपने पंजीकृत संविधान में लिखे गए उद्देश्य के अनुरूप देश भर में सामाजिक समरसता नाम का अपना एक आयाम भी शुरू किया है. इसके अंतर्गत विहिप समय – समय पर महर्षि बाल्मीकि व सिद्धू – कान्हू रथ यात्राएँ निकालता है, विद्यालय, छात्रावास, पुस्तकालय, बाल संस्कार केन्द्र, औषधि केन्द्र, सिलाई केन्द्र, सत्संग, मन्दिर संस्कार केन्द्र और सामाजिक कुरीति, दुर्व्यसन मुक्ति अभियान जैसे कार्य करता है. विश्व हिन्दू परिषद का सामाजिक समरसता नामक प्रयास वास्तव में एक प्रशंसनीय कदम है.
राजीव गुप्ता