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आते-जाते कुछ नहीं देखा, देखा एक अचंभा - Sabguru News
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आते-जाते कुछ नहीं देखा, देखा एक अचंभा

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आते-जाते कुछ नहीं देखा, देखा एक अचंभा

कहा जाता है कि आत्मा, अजर अमर, अविनाशी है। यह तो केवल शरीर को बदलती है और नया शरीर धारण करती है। इसका रिश्ता केवल शरीर से होता है और शरीर त्यागने के बाद यह कहां चली जाती है और यह कहां से आती-जाती है आज भी एक रहस्य ही बना हुआ है। हम इसकी गाथा केवल साहित्य और धार्मिक ग्रंथों के आधार पर ही समझ पाए हैं।

संतजन कहते हैं कि परमात्मा ने इस संसार में बडा खूबसूरत शरीर रूपी बंगला बनाया है और उसमें परमात्मा रूपी आत्मा ही बोलती हैं, कहते हैं इस शरीर में दस दरवाजे होते हैं और शरीर एक थमबे की तरह होता है। इस शरीर के दस द्वार में से कोई भी आता जाता दिखाई नहीं देता है बस एक अचंभा ही जन्म और मरण के रूप में दिखाई देता है।

आत्मा और शरीर का रिश्ता ही इस जगत में जाना जाता है बाकी सब रिश्ते सामाजिक संरचना के ताने-बाने के रूप में बनते हैं। शरीर रूपी बंगले में नारायण रूपी आत्मा बोलती है। इस दुनिया मे शरीर को एक नाम दिया जाता है जबकि इस शरीर को चलाने वाली आत्मा को केवल शरीर के नाम से ही जाना जाता है।

यह आत्मा कौन है, कहां से आती है और कहां वापस चली जाती है। यह सब इस संसार के रहस्य ही हैं। इस रहस्यमय संसार की दुनिया में उलझ कर व्यक्ति चमत्कारों की दुनिया में खो जाता है।

आत्मा वापस जन्म लेती है या नहीं? क्या वह देव श्रेणी में चली जाती है या नहीं? आदि कई विषयों की अलग अलग मान्यता और सिद्धांतों को मान व्यक्ति व समाज वास्तविक कर्म से विमुख हो जाता है।

वह आत्मा के चमत्कार पर ही आश्रित हो जाता है और ऐसा न होता तो व्यक्ति भूत, प्रेत ओर भाव अर्थात व्यक्ति में देव की छाया भाव के रूप में आना आदि का अस्तित्व नहीं होता है और व्यक्ति कर्म ही पूजा है के सिद्धांत को मानकर वास्तविक विकास के रास्ते पर चलता।

संत जन कहते हैं कि व्यक्ति का विकास स्वयं के कर्म पर ही निर्भर करता है ना कि चमत्कारों की दुनिया पर। अगर चमत्कारों की दुनिया में जन कल्याण होता है तो किसी भी देश में कोई भी समस्या उत्पन्न होने के साथ ही खत्म हो जाती।

चमत्कारों की दुनिया में भीड़ तो जुट जाती है। लेकिन मानव मन की आस्था के कारण भगवान् को कर्म से पाया जा सकता है ना कि चमत्कारो से।

सौजन्य : भंवरलाल