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What is the untold secret of Narendra Modi's credibility
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नरेंद्र मोदी की साख का रहस्य क्या है?

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नरेंद्र मोदी की साख का रहस्य क्या है?
What is the secret of Narendra Modi's credibility
What is the secret of Narendra Modi's credibility
What is the secret of Narendra Modi’s credibility

महंगाई बढ़ रही है, वादे पूरे नहीं हो रहे हैं, विदेश नीति असफल है, साम्प्रदायिक सौहार्द घट रहा है, लाल किले से भाषण में प्रधानमंत्री ने परंपरा को तोड़कर अभिव्यक्ति की है जैसे कांग्रेस सहित कतिपय अन्य विपक्षी दलों के साथ अपनी ‘सहिष्णुता’ के लिए अपनी पीठ ठोकने वाले ‘बुद्धिजीवी’ माने जाने से विभूषित लोगों के सारे ‘सद्प्रयासों’ के बावजूद नरेंद्र मोदी की साख आज भी देश में सबसे अधिक क्यों कायम है।

और तो और प्रधानमंत्री के लाल किले की प्राचीर से दिए गए भाषण के कुछ घंटे बाद ही भारत की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सभी विपरीत टिप्पणियों को पछाड़ते हुए उसी मसले पर आंसू बहाने से कही अधिक चिंताजनक है। मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने न्यायालयों में रिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में प्रधानमंत्री के ‘मौन’ में लालकिले के संबोधन से जोड़कर कौन की मीमांसा करने वालों को एक और मुद्दा दे दिया है।

जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक जितने भी प्रधानमंत्रियों ने एक बार या बार-बार लाल किले से 15 अगस्त को संबोधित किया है, मुझे नहीं स्मरण कि किसी ने भी न्यायालयीय विषयों को-यहां तक कि न्याय मिलने में विलंब अथवा उसके आम आदमी की पहुंच से बाहर होते जाने को कभी मुद्दा बनाया हो। रिक्त स्थानों की पूर्ति भी लाल किले से भाषण का मुद्दा बन सकता है, इसकी शायद ही किसी ने कभी कल्पना की होगी।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश इस समस्या से कितने विह्वल हैं, इसका अनुमान उनकी अभिव्यक्ति से लगाया जा सकता है। वैसे तो न्यायाधीशों द्वारा संदर्भ रहित टिप्पणियों के औचित्य पर कई बार चर्चा हो चुकी है लेकिन मुख्य न्यायाधीश की रिक्तता की लाल किले से संबोधन में मुद्दा बनाए जाने पर क्षोभ की अभिव्यक्ति पर जैसी स्तब्धता रही है, उससे यह समझ में आना कठिन नहीं होना चाहिए कि देश ने उसको किस भावना से स्वीकार किया है।

न्यायाधीशों की संख्या में कमी एक मुद्दा अवश्य है लेकिन उसे सार्वजनिक रूप से सरकार पर बाधक बनने के आक्षेप के रूप में उठाए जाने के बाद से यह अनुभव होने लगा है कि लोकसभा में विपक्ष की भूमिका को निभाने के अभाव की आपूर्ति होने लगी है। सरकार और न्यायालय के बीच ‘अधिकार क्षेत्र’ को लेकर मतभेद नया नहीं है। लेकिन वर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने उसे जिस रूप में मुखरित किया है उससे लगता है कि जैसे वर्चस्व के लिए सड़क पर उतर आया गया है।

जैसे यह सरकार के लिए गरिमामय नहीं माना जा सकता कि वह न्यायालय की अवहेलना करे, वैसे ही न्यायालय के लिए भी यह गरिमामय नहीं है कि मतभेदों को सार्वजनिक चर्चा का विषय बना दे। विधि आयोग जिन अनेक मुद्दों पर विचार कर रहा है, उसके निष्कर्ष पर सहमति बनाना ही इसका एकमात्र है लेकिन वर्तमान मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्चता के मामले में अपनी राय पर अडिग दिखाई पड़ रहे हैं।

जैसा प्रारम्भ में स्पष्ट किया गया है कि सारी विपरीत हवाबाजी के बावजूद देश के अवाम में मोदी की लोकप्रियता सबसे ऊपर है। कोई अन्य व्यक्ति उनके आधे तक नहीं पहुंच पाया है, यहां मोदी की प्रधानमंत्री बनते समय की लोकप्रियता में कमी का आंकलन क्यों न किया गया हो। उनके खिलाफ जो कुछ कहा जा रहा है वह मसलहतन है या औचित्यपूर्ण, इसे फिलहाल हम चर्चा का विषय नहीं बना रहे हैं, समीक्षा का विषय है विपरीत अभिव्यक्तियों की आंधी में मोदी की साख क्यों और कैसे कायम है।

अपनी-अपनी धारणा और प्रतिबद्धता के आधार पर मोदी की वाजिब और गैरवाजिब सभी प्रकार के आरोपों से घेरने में लगा समुदाय सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से एक आदेश नहीं लगा सका कि उनकी सरकार भ्रष्ट या इस सरकार के जमाने में भ्रष्टाचार बढ़ा है। लाल किले से तथा अन्य अवसरों पर भी मोदी ने इन दो वर्षों में भ्रष्टाचार पर जिस समझता के साथ अंकुश लगाया है और उसे शून्य से ऊपर नहीं बढ़ने दिया, उसने स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार अवाम में यह भरोसा पैदा किया है कि यदि सरकार चलाने वालों की नियत ठीक हो तो भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है।

दो वर्ष से अधिक समय में न तो किसी मंत्री, सांसद या नौकरशाही पर भ्रष्टता या निहित स्वार्थी तत्वों को प्रश्रय देने के लिए दलालों के प्रभाव की कभी भी चर्चा तक नहीं हुई। क्योंकि मोदी ने सत्ता संभालते ही प्रशासनिक निर्णयों को दलालों के प्रभाव से मुक्त रखने का विशेष ध्यान रखा। उन्होंने लाल किले की प्राचीर से ठीक ही कहा कि पूर्व की सरकार आक्षेपों की सरकार रही है, उनकी सरकार अपेक्षाओं की सरकार है।

देश वासियों को जो अपेक्षाएं हैं, उनकी पूर्ति का नरेंद्र मोदी से ही उम्मीद कायम है। इस उम्मीद को तोड़कर पनपने का स्वप्न देख रहे लोगों के प्रयास दिवास्वप्न ही साबित हो रहे हैं। भ्रष्टाचार रक्तविकार के समान सभी शासकीय, राजनीतिक और सामाजिक रोगों की जड़ है। मोदी ने डालियां काटने के बजाय जड़ पर ही प्रहार किया है और ऐसे उपाय करते जा रहे हैं जिससे निचले स्तर पर राज्यों में वैसी धारदार अभियान के अभाव में अभी भी आम आदमी को भ्रष्टाचार से मुक्ति का जो अहसास नहीं हो रहा है, वह केंद्रीय स्तर पर किए गए प्रयासों के परिणाम के समान अनुभव होने लगे।

राजनीतिक दृष्टि से मोदी द्वारा लाल किले से बलूचिस्तान और पाकिस्तान द्वारा गुलाम बनाए गए कश्मीर के संदर्भ में की गई अभिव्यक्ति पर कांग्रेस सहित कुछ ‘प्रगतिशीलता’ के दावेदार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनकी अभिव्यक्ति को ‘बचकाना’ भले ही कहकर अपनी भड़ास निकालने का प्रयास करें लेकिन आम आदमी यह मानता है कि नरेंद्र मोदी ने पहली बार पाकिस्तान को उस भाषा में जवाब दिया है जो उसको समझ में आ सके।

यदि भारत के गुपचुप सहयोग से पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके हैं तो आज मोदी की राजनीतिक दूरदर्शितायुक्त अभिव्यक्ति से उसके टुकड़े-टुकड़े होने का माहौल बन रहा है। और 1971 के समान कोई ‘अमरीका’ अपने जंगी जहाज को हिन्द महासागर में भेजकर धमकाने का भी संकेत नहीं दे रहा है।

देश विरोधी अभिव्यक्तियों और कृत्यों को संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखने वाले या फिर विदेशी पैसे मानवता और सुरक्षा की गारंटी के लिए प्रयत्नशील होने का दावा करने वाले अथवा भारतीय औदार्य को गलत संदर्भाें में उद्धृत कर अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने की दावेदारी करने वाले अथवा किन्हीं छिटपुट घटनाओं में तिल का पहाड़ बनाकर असुरक्षा का हौवा खड़ा करने वाले जो भी प्रयास करते रहे हैं उसका लाभ वे उठा रहे हैं, जो भारत और भारतीयत्व के अस्तित्व के विनाश में अपना पुनर्वास देख रहे हैं, तात्कालिक रूप से वे अपने प्रयास में सफल होते ही मालूम पड़ते हैं लेकिन जब अवाम के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मोदी नही तो कौन सारे अभियान ताश के महल के समान धराशायी हो जाते हैं।

चुनावों में मतों की अभिव्यक्ति में जिस भी कारण से अभिव्यक्ति स्वार्थ प्रेरित होती रही है या आगे भी हो, लेकिन जब भी देश के भविष्य के संदर्भ में उनके मत को जानने का प्रयास हुआ तो अवाम ने ऐसे व्यक्ति या संगठन को अपनी पहली पसंद बताई है, जिसकी कथनी और करनी में अंतर न हो। आचरणविहीन अभिव्यक्ति हवा में तो तेजी से उड़कर आंखेां में धूल झोंक सकता है लेकिन वह चरणहीन होने के कारण धरती पर सम्यक रूप से प्रसर नहीं सकती।

मोदी की सबसे बड़ी विशेषता है-उनकी कथनी और करनी में समरूपता, उनका संकल्प है सबका साथ सबका विकास। इस संकल्प से कतिपय दुर्घटनाओं को संदर्भित कर उन्हें विचलित करने का चाहे जितना प्रयास हो, उन्होंने अपनी कथनी को करनी के रूप में प्रकट करने के लिए अहर्निस अडिग रहने का जो स्वरूप प्रकट किया है, वही है, उनके साख को सर्वोपरि बनाये रखने का कारण।

जो उनके मुरीद हैं वे तो यह मानते ही हैं कि देश का भलाई मोदी के हाथ में सत्ता की बागडोर रहने से ही संभव है। लेकिन जो उनके सत्तारूढ़ होने से उद्वासित अनुभव कर रहे हैं, वे भी यह स्वीकार करते हैं कि मोदी के इस स्वरूप को खंडित कर पाना उनके लिए संभव नहीं है। हमारे देश के राजनीतिकों को मौन रहने का आचित्य और अभिव्यक्ति की शैली के संदर्भ में मोदी से सीख लेनी चाहिए।

राजनाथ सिंह ‘सूर्य’