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भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होता खतरा - Sabguru News
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भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होता खतरा

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भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होता खतरा
what needs to change in indian education system
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नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेट फार्म नंबर पांच पर 12 लोगों का एक परिवार बैठा है, जिनके साथ 5 बच्चे हैं, उम्र में 3 से 10 वर्ष के बीच, लेकिन ये सभी अपने परिवार के साथ आने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि इन्हें अब दूसरी जगह जहां पहुंचने के लिए ठेकेदार ने बताया है, उस साईट पर काम के लिए जाना है।

जब बच्चों के पास जाकर उनसे पूछा जाता है कि क्यों तुम पढ़ाई करते हो? तो सिर हिलाकर शर्माते हुए सभी एक साथ कह उठते हैं नहीं। इसके बाद उनके पिता से बच्चों की नियमित पढ़ाई के बारे में पूछते हैं तो एक ही जवाब मिलता है कि का करें, पेट की खातिर मजदूरी करनी पड़ती है और जहां हमारा ठेकेदार कहता है काम के लिए जाना पड़ता है। यहां काम न करि तो जहां भी करि पेट पालिन मजदूरी तो करनी पढ़ी।

वास्तव में यह है भारत की वह तस्वीर जो सभी को देश के किसी भी रेलवे स्टेशन या बस स्टेंड पर पहुंचते ही साक्षात हो जाती है। अमूूमन देश के प्रत्येक राज्य के रोजगार के लिए पलायन करने का ग्राफ अपने आप में विस्तृत रूप से उपलब्ध है। इस पलायन में सबसे ज्यादा प्रभावित जो होते हैं वे वही हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं या जो दिहाड़ी पर मजदूरी करने के लिए बेबस हैं।

इस सब के बीच यदि कोई जीने के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के प्रयासों में सबसे ज्यादा समझौता करते और प्राकृतिक योग्यता के होने के बाद भी भविष्य में सही मुकाम पाने में सफल नहीं हो पाते हैं तो वे हैं इन मजदूरों के बच्चे जो चाहे अनचाहे एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने परिवार के साथ पलायन करने के लिए मजबूर हैं।

हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी देश में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता प्रकट की है, इससे भी यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के बीच शिक्षा के स्तर को लेकर भारत की स्थिति क्या है। विद्यालयीन शिक्षा की बात की जाए तो देश के कुछ राज्यों को छोडक़र सभी की हालत खराब है। जिसके पास पैसे की ताकत है वही अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में सफल हैं।

इसके अलावा सभी उस सरकारी सिस्टम के भरोसे हैं जहां अधिकांश स्थानों पर पढ़ाने के लिए पर्याप्त सख्या में मास्टर और टीचर मेडम के होने की बात तो दूर वहां बैठने के लिए सही स्थिति में टाट-पट्टी तक नहीं हैं, बरसात हो जाए तो सीधे टीनशेड से पानी चू-चू कर बच्चों के सिर पर आता है।

सबसे ज्यादा हालत जिन राज्यों की खराब है, उनमें बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, आंध्रप्रदेश जैसे राज्य आते हैं। गुणवत्ता और अच्छी स्थिति में देश के जो राज्य हैं उनमें सबसे आगे बड़े प्रदेशों में केरल और छोटे राज्यों में गोवा है।

स्कूली शिक्षा की तरह उच्च शिक्षा की स्थिति भी भारत में आज अच्छी नहीं कही जा सकती है। उत्तम दर्जे की उच्च शिक्षा उन्हें ही सहज सुलभ है जो कि धन का सामथ्र्य रखते हैं। यानि कि कुल मिलाकर देश में अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के लिए धनवान होना जरूरी हो गया है। यदि प्रतिभावान के पास रुपए नहीं तो ज्यादातर मामलों में उसके आगे बढऩे के अवसर खत्म हो जाते हैं।

इस संबंध में हमारे राष्ट्रपति सही कहते हैं कि निजी शिक्षा के क्षेत्र में पिछले दिनों तेजी से फैलाव हुआ है। इसके कारण ही विद्यालयीन और उच्च शिक्षा दोनों स्तर पर छात्रों की पहुंच बढ़ गई है। वास्तव में यह बात बिल्कुल सही भी है, आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल आबादी में से 60 फीसदी छात्र निजी संस्थानों में अध्ययनरत हैं।

बात यहां यदि उच्च शिक्षा के स्तर पर विस्तार से करें तो संसद की एक समिति ने भी उच्च शिक्षा की दशा पर सवाल उठाए हैं और इसे दुरुस्त करने के लिए अपने विशेष सुझाव तक दिए हैं। उच्चशिक्षा में भयावह स्थिति का अंदाला सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के 39 केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे शिक्षकों के चालीस फीसदी पद खाली हैं। यह हाल केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों का है अगर इसमें राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों को भी जोड़ दें तब क्या हालात बनेंगे यह अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।

इसके इतर शिक्षा को लेकर सरकार कितनी गंभीर है इसकी भी बानगी देखी जा सकती है। पिछले के बजट में शिक्षा के लिए महज 69 हजार करोड़ रुपये रखे गए , जबकि इसके एक वर्ष पूर्व तक यह राशि 83 हजार करोड़ रुपए थी यानि कि इस राशि में बढ़ोतरी के स्थान पर इसमें सीधे-सीधे 14 हजार करोड़ घटा दिए गए।

हालांकि यह भी एक तल्ख सच्चाई है कि केवल शिक्षा के बजट को बढ़ाने से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकेगा, इसके लिए आर्थिक संसाधनों के अलावा भी अन्य जरूरी काम करना होगा, जिससे भारत के विद्यार्थियों को वैश्विक मानकों के समकक्ष शिक्षा मिल सके।

धन के साथ नैतिक शिक्षा का समावेश विद्यालयीन पाठ्क्रम से लेकर उच्चशिक्षा में ली जाने वाली अंतिम डिग्री तक अनिवार्य किया जाना चाहिए। जिससे कि छात्र-छात्राओं में मौलिक सोच के विकसित होने के साथ-साथ संवेदनशीलता परस्पर की बातचीत,किसी भी समस्या के समाधान के लिए सदैव तैयार रहने की क्षमता को बढ़ाया जा सकेगा।

आज जो स्कूल पढ़ाई करने वालों का ग्राफ है, वह इन्हीं सब कारणों से निरंतर कई वर्षों के प्रयासों के बाद भी नकारात्मक बना हुआ है। दुनिया के देशों के बीच आज भी भारत में हायर एजुकेशन में सबसे कम जनसंख्यात्मक अनुपात के हिसाब से एडमिशन होते हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर बनाने के लिए किए जा रहे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा राज्यों के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा लाख प्रयास किए जाने के बाद भी स्थिति में अभी तक बहुत सुधार नहीं आ पाया है।

देखा यही जा रहा है कि योजना बनाने वाले उस पर आने वाले खर्च का सही अंदाजा तक नहीं लगा पा रहे हैं। यही कारण है कि भले ही भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती हो, लेकिन श्रेष्ठ 100 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी नाम शामिल नहीं हो सका है।

यदि भारत को अपनी इस स्थिति को सुधारना है तो उसे 2 लाख 26 हजार 410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा, जिस पर कि केंद्रीय सरकार का अभी कोई ध्यान नहीं है। नैसकॉम और मैकिन्से के शोध पर्सपेक्टिव 2020 के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। इतना ही नहीं तो राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का निष्कर्ष निकला है कि देश में 90 फीसदी कॉलेजों और 70 प्रतिशत विश्वविद्यालयों का शिक्षा स्तर कमजोर है।

इस सब का परिणाम यह है कि भारतीय छात्रों का उत्तम किस्म की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशों के प्रति आकर्षण निरंतर बढ़ता जा रहा है। विदेशी विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए हर साल तकरीबन 15 अरब डॉलर की भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है। सही बात यही है कि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था समय की मांग है, और जो इस मांग को पूरा करेगा, जिसके पास अर्थ शक्ति होगी या जो आवश्यक धन की पूर्ति किसी तरह कर सकते हैं वे उसी तरफ दौड़ लगाएंगे, जहां कम समय में पर्याप्त जानकारियां प्राप्त हो सकें।

इस संबंध में अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मोहनलाल छीपा बताते हैं कि भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 18 प्रतिशत के लगभग है। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में 18-23 वर्ष आयु समूह की जो जनसंख्या है का 18 प्रतिशत विद्यार्थी ही किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश ले रहे हैं तथा 82 प्रतिशत विद्यार्थी किसी न किसी बाधा के कारण से विश्वविद्यालयों के दरवाजे तक नहीं पहुंच पाते हैं।

मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी आज कह रही हैं कि शिक्षा नीति निर्धारण में पहली बार हर नागरिक को अपनी बात कहने का अवसर दिया गया है। यदि शिक्षा के बदलाव या सुधार के स्तर पर कहीं से भी सरकार को महत्वपूर्ण सुझाव मिलेंगे तो सरकार उन्हें जरूर अमल में लाएगी। इसके लिए राज्यों से भी सुझााव मांगे गए हैं, लेकिन सही पूछा जाए तो यह काम इतना आसान भी नहीं है जितना कि सामने से नजर आता है ।

ऐसा इसीलिए कहा जा सकता है कि देश की आजादी के बाद से धीरे-धीरे भारत की शिक्षा नीति के निर्धारण में विदेशी संस्थाओं विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन एवं इसी प्रकार की अन्य वैश्विक एजेंसियों का हस्तक्षेप बढ़ता गया है और यह प्रक्रिया सतत जारी है।

देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 27 विश्वविद्यालय हुआ करते थे आज इनकी संख्या बढक़र 740 हो गई है। जिसमें कि केंद्रीय विश्वविद्यालय की संख्या 46, निजी विश्वविद्यालय 227, राज्यों के अधीन विश्वविद्यालय 342 और डीम्ड विश्वविद्यालय की संख्या 125 है। केंद्रीय विश्वविद्यालय, राज्यों के अधीन विश्वविद्यालय या फिर निजी विश्वविद्यालय हों, कुछ को छोडक़र सभी को लेकर एक सा नजरिया है कि पढ़ाई बेहतर नहीं होती है।

कुछ विश्वविद्यालय ऐसे हैं जहां दाखिला मिलना मुश्किल है और मिल जाए तो छात्रों को गर्व महसूस होता है। ऐसे में बाकी संस्थानों को लेकर सवाल उठते रहते हैं। इसका सबसे बढ़ा कारण जो नजर आता है वह है एक समान पाठ्यक्रम का अभाव और दुनिया की कई वित्तिय सस्थाओं का भारत की उच्चशिक्षा में लगातार का होने वाला हस्तक्षेप। क्योंकि वे यहां लगातार उच्च शिक्षा में अपना निवेश कर रहे हैं, इसलिए पहले वे अपना हित उसमें देखते हैं, भारत के हितों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है।

लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के कुलपति अशोक मित्तल का साफतौर पर कहना है कि निजी संस्थान जो सुविधाएं और शिक्षा के गुणात्मक स्तर को सतत सुधारने को लेकर कार्यरत हैं, जबकि इस तरह का माहौल और सुधार की मानसिकता सरकारी संस्थानों में न के बराबर नजर आती है। इसलिए ही दिन-प्रतिदिन विद्यार्थी निजी विश्वविद्यालयों की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। उनका मानना है कि तब तक यह स्थिति नहीं बदलने वाली जब तक कि उच्च शिक्षा को लेकर सरकार की भी नीति स्पष्ट नहीं हागी।

शिक्षाविदों में प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज, डॉ. देवेन्द्र दीपक, प्रो. कुसुमलता केडिया, प्रो. एस.के. सिंह., प्रो. पवन शर्मा, शिक्षाविद् लक्ष्मी नारायण भाला जैसे तमाम लोगों का मानना है कि अगर सही शिक्षा नीति अमल में लाई गई तो सरकारी और निजी संस्थानों के बीच की दूरी कम होगी। विद्यार्थी सरकारी तंत्र की व्यवस्था में ही विश्व स्तर की शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे। इन सबने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर भरोसा भी जताया है।

शिक्षा के वर्तमान स्तर और उसमें दी जा रही पठनीय सामग्री को लेकर शिक्षाविद् दीनानाथ बत्रा कहते हैं कि शिक्षा का स्वरूप बदलना चाहिए, क्योंकि अभी जो शिक्षा दी जा रही है वह भारतीय परंपरा के अनुरूप नहीं है। बत्रा साफ कहते हैं कि समूचे देश में शिक्षा का भारतीयकरण होना चाहिए।

भारतीय मूल्यों के साथ रोजगार परक शिक्षा सभी को देना होगी, तभी देश से बेरोजगारी जैसी समस्या का भी निर्मूलन हो सकेगा, साथ में अन्य क्षेत्रों में भी विकास तेजी से नजर आएगा। बात बिल्कुल साफ है कि हमें पहले यह समझना होगा कि शिक्षा किसलिए जरूरी है, क्या केवल साक्षर होने या नौकरी के लिए पढ़ाई की जानी चाहिए अथवा इसके और भी गहरे मायने हैं?

विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय वह केंद्र होते हैं जहां विद्यार्थी को वैचारिक स्तर पर गढऩे का कार्य किया जाता है। सही बात यही है कि यदि प्रत्येक शिक्षण संस्थान के सभी प्रमुख अंग शिक्षक, शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी अपने दायित्वों का निर्वहन सही तरीके से ईमानदार होकर करने लगें, तो भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होते खतरे से आसानी से निपटा जा सकता है।

इन तीनों का संपूर्ण समर्पण समाज और सरकार दोनों को प्रेरित करने के साथ जहां जरूरत होगी, वहां बाध्य भी करेगा कि क्यों न इस बदहाल तस्वीर को बदला जाए, जितना संभव हो उतना अधिक आर्थिक व अन्य सहयोग देश की शिक्षण संस्थाओं को दिया जाए।

डॉ. निवेदिता शर्मा
(लेखिका, पत्रकार एवं अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल में अतिथि सहायक प्राध्यापक हैं।)