भारत परंपराओं और उत्सवों का देश है। शायद ही यहां ऐसा कोई दिन बीतता होगा, जिस दिन कोई व्रत, त्यौहार, जयंती या अन्य कोई पुण्य तिथि उत्सव न बनता हो, यानि कि हर रोज देश के एक कोने से लेकर दूसरे सिरे तक कुछ न कुछ मंगलमय कामनाओं का गीत गान यहां सतत् चलता रहता है। ऐसे में किसी एक पक्ष से जुड़े परंपरागत उत्सवों में होने वाले कार्यों को यह कह कर रोक दिया जाए कि इससे पशु हानि या पशुओं पर अत्याचार हो रहा है, तो जरूर सोचना होगा कि आखिर एक वर्ग को ही क्यों इस बात के लिए निशाना बनाया जा सकता है?
वैसे भी इस देश की खासियत यही है कि हिंसा को यहां कभी प्रश्रय नहीं दिया गया। बुद्ध से लेकर जैन संप्रदाय का प्रादुर्भाव करने वाली और अहिंसा परमो धर्म: का जयघोष करने वाली भूमि सदियों से इसी भारत वर्ष की रही है। किंतु यह भी सच है कि त्यौहारों पर अपने मनोरंजन के लिए उत्सवी माहौल बनाने के लिए कुछ खेलों में पशुओं को भी यहां लोगों ने अपने साथ लिया है और उनके साथ समानान्तर मिलकर उत्सव का आनंद सदैव से उठाया है।
यह सर्वविदित है कि मकर संक्रांति हिन्दुओं का नव वर्ष है, जहां यह पूरे देश में अलग-अलग तरीके से मनता है, वहीं तमिलनाडु में मकर संक्रांति (पोंगल) के मौके पर जलीकट्टू यानी बुल फाइटिंग समेत बैल दौड़ वाले कुछ अन्य आयोजन उत्सवी माहौल के दौरान किए जाते हैं। पर यह क्या ? इस पर यकायक यह कहकर रोक लगा दी गई कि इससे जानवरों के साथ हिंसा की जाती है।
आपको बता दें कि वर्ष 2011 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पशु कल्याण विभाग ने एक नोटिफिकेशन जारी करके पशुओं पर क्रूरता रोकथाम कानून 1960 के उपबंध 22 के तहत बैलों के प्रदर्शन केंद्रित कार्यों में इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी। ऊपर से उच्चतम न्यायालय का फरमान भी आ गया था कि इस खेल को आगे जारी नहीं रखा जाएगा, जिसके बाद से एक तरह से पूरे तमिलनाडु राज्य में इसके खेल पर पाबंदी लग गई, पर यह खेल और हिन्दू नववर्ष का उत्साह है कि तमाम सख्ती और कानून की रोक के बाद भी जलीकट्टू यहां के निवासियों के जहन से नहीं जा पा रहा है। यानि कि यहां की जनता चाहती है कि पोंगल हिन्दू नववर्ष पर पुन: देश में बैलों के प्रदर्शन और उनसे जुड़े खेल के आयोजन शुरू किए जाएं।
इस खेल को लेकर पहले तो यह कहा जाएगा कि इस पर रोक नहीं लगनी चाहिए थी, हां इतना अवश्य हो सकता था कि कोई बीच का रास्ता निकाला जाता, जिसमें कि बैलों के साथ किसी प्रकार की हिंसा भी नहीं होती और परंपरा का निर्वहन भी सतत होता रहता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया । देश में उच्चतम न्यायालय, कानून की सर्वोच्च संस्था है, उसका दिया निर्णय सभी को स्वीकार्य है। किंतु वहां भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई तेज कराने के लिए आवाश्यक कदम तो उठाए ही जा सकते हैं।
पशुओं पर हिंसा को लेकर आज यह प्रश्न भी लाजमी है कि जब केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय पशुओं पर क्रूरता रोकथाम कानून 1960 का हवाला देकर इस खेल पर रोक लगा सकता है, तो क्यों नहीं वह हर पशु को बलि होने के विरोध में अपने इस कानून का इस्तमाल करता है? पशु तो फिर पशु है, वह बैल हो, गाय हो, बकरी हो, बकरा हो, ऊंट हो, भैस या भैसा हो, फिर वह कोई भी क्यों न हो।
निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि बैलों की तरह प्रत्येक पशु का जीवन कीमती और इस पर्यावरण के अति महत्व का है, प्रश्न लाजमी है कि ऐसे में जलीकट्टू ही निशाने पर क्यों? क्या सरकार में सामर्थ्य है कि वह पोंगल में जैसे इस त्यौहार पर होने वाले बैलों के उत्सव जलीकट्टू को रोकने के लिए कानून का सहारा लेती है, वह ठीक इसी प्रकार ईद या ऐसे ही पशु बलि से संबंधित देश में होने वाले त्यौहारों पर रोक लगा सके ? क्या इस देश में मुर्गा और मुर्गी मरने के लिए हैं।
सच यही है कि भारत में प्रतिदिन हजारों नहीं लाखों की संख्या में पशु धन की बलि चढ़ती है, वह केवल धर्म का सहारा लेकर नहीं तो आदमी के स्वाद के लिए भी यह वध बहुतायत में यहां होता है। पर इस पर कोई भी सरकार कुछ नहीं कर सकती, मौन सभी ओर छाया हुआ है, क्योंकि कहीं न कहीं सत्ता से लेकर स्वाद तक वह भी बराबर की इसमें हिस्सेदार है। हां, पोंगल पर जरूर जलीकट्टू को रोका जा सकता है, क्योंकि देश में इसे लेकर भारी जुलूस नहीं निकलने वाला और न ही कोई हिंसा या अराजकता भड़कने की उम्मीद है। तब रोको और रोकते जाओ, इसी प्रकार अन्य हिन्दू त्यौहारों पर होने वाले उत्सवी माहौल को।
देश में तमिलनाडु राज्य की सरकार दोबारा इसे अपने यहां शुरू करने की मांग केंद्र से लगातार कर रही है। उसने केंद्र से यही मांग की है कि बैलों के इस खेल पर पाबंदी लगाने वाले कानून के दायरे से इस पशु का नाम हटाया जाए। अब केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का आया बयान इस बात को लेकर अति महत्वपूर्ण हो गया है और कहीं न कहीं उत्साह का संचार भी कर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि सरकार पशुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए सदियों से प्रचलित कुछ सांस्कृतिक परंपराओं के आयोजन की अनुमति देगी।
जलीकट्टू और ऐसे ही इससे जुड़े अन्य खेलों को लेकर पर्यावरण मंत्री सही फरमा रहे हैं कि सदियों से तमिलनाडु में जलीकट्टू और महाराष्ट्र, पंजाब तथा कर्नाटक में बैलों की दौड़ का आयोजन पारंपरिक और सांस्कृतिक तौर पर होता रहा है। हम इसका सम्मान करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी चाहते हैं कि इस दौरान पशुओं के साथ क्रूरता न हो। हमने इसे फिर से चालू करने के लिए कुछ रास्ते निकाले हैं, जिनका ऐलान पहली जनवरी को किया जाएगा। अब इस बात के लिए भी जरूर केंद्र की मोदी सरकार का शुक्रिया अदा किया जा सकता है कि वह भावनाओं का सम्मान करना जानती है। काश, वह दिन भी आ जाए, जब हिंसा को रोकने से संबंधित कुछ हिदायत देते हुए जलीकट्टू दोबारा इस देश में प्रसन्न वातावरण में फिर से शुरू हो सके ।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी