राजस्थान की दो मुस्लिम महिलाओं ने एलान किया है कि वे काज़ी बन गई हैं। जहांआरा और अफरोज़ बेगम नामक इन दो महिलाओं ने मुंबई की दारुल-उलूम-ए-निस्वान में दो साल प्रशिक्षण लिया। उनके जैसी कुल 16 मुस्लिम महिलाएं अब काज़ी होने का दावा कर रही हैं।
इन महिलाओं का कहना है कि वे पुरोहिताई अच्छी तरह से कर सकती हैं याने वे निकाह, तलाक, मेहर आदि तो करवा ही सकती हैं, इनके अलावा वे कई अन्य मामलों में सही-गलत के फैसले भी कर सकती हैं।
वे कहती हैं कि महिला अगर काजी का काम करें तो मुस्लिम औरतों की बड़ी मदद होगी। वे महिला काज़ी से खुलकर बात करेंगी जबकि पुरुष काज़ी से कई बातें कहना मुमकिन ही नहीं होता। महिला काज़ी मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने में ज्यादा मददगार हो सकती हैं।
इन सब दलीलों को कई इमामों, मौलानाओं और मुफ्तियों ने रद्द कर दिया है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में कहीं भी महिला काज़ी का जिक्र तक नहीं है। किसी हदीस में इशारे से भी नहीं कहा गया है कि औरतों को न्यायाधीश का या पुरोहिताई का काम सौंपा जाए। कुछ औरतें अपनी मर्जी से काज़ी कैसे बन सकती हैं? किसी को काज़ी बनना हो तो या तो सरकार उसे बनाएगी या मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड बनाएगा।
यदि ऐसा ही है तो वे उन्हें क्यों नहीं बना देते? उन्हें क्या एतराज़ है? दुनिया की बड़ी से बड़ी अदालतों में औरतें जज बनकर बैठती रही हैं और वकील की भूमिका अदा करती रही हैं। क्या हमारे सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस फातिमा को आप भूल गए?
कोई हमें यह समझाए कि यदि एक मुस्लिम औरत न्यायाधीश बन जाए तो उससे इस्लाम का या मुसलमानों का क्या नुकसान हो जाएगा? शहर काजी होना तो बहुत मामूली बात हैं। यदि इससे इस्लामिक कानून का उल्लंघन होता है तो फिर किसी मुसलमान औरत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति होना तो बिल्कुल काफिराना हरकत घोषित की जानी चाहिए।
बेनजीर भुट्टो, हसीना वाजिद और खालिदा बेगम को पाकिस्तान और बांग्लादेश ने क्यों बर्दाश्त किया? रजि़या सुल्तान भारत की सुल्तान कैसे बन गई? हजरत मुहम्मद साहब की बेगम हजरते-आयशा ने इन्साफ के कितने बड़े-बड़े फैसले किए और कितनी लड़ाइयां बहादुरी से लड़ीं?
यह ठीक है कि अब से 1500 साल पहले अरब देशों में ‘जहालत’ (अंधकार) थी लेकिन पैंगबर मुहम्मद साहब ने वहां आकर क्रांति कर दी। उन्होंने नर-नारी समता का पाठ अरबों को पढ़ाया। क्या इस पाठ को आगे बढ़ाने की जरुरत नहीं है? भारत के मुसलमानों को यह सिद्ध करना चाहिए कि वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान हैं।
जहां तक कानूनों का प्रश्न है, वे देश और काल के मुताबिक बनते और बदलते हैं। उनका असली मजहब या रुहानियत (आध्यात्मिकता) से बहुत कम ताल्लुक होता है। अब इस्लाम सिर्फ अरबों तक और 1400 साल पहले तक सीमित नहीं रह गया है। उसकी मूलभूत मान्यताओं से छेड़छाड़ किए बिना उसे व्यावहारिक बनाना बहुत जरुरी है। यह बात सभी धर्मों पर लागू होती है।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक