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why Cong, opposition parties anti demonetisation
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नोटबंदी से विरोधी नेताओं के पेट में क्यों हो रहा दर्द

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नोटबंदी से विरोधी नेताओं के पेट में क्यों हो रहा दर्द
why Cong, opposition parties anti demonetisation protest in lok sabha
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देश में चहुंओर मोदी, मोदी नाम का गुंजायमान हो रहा है। कोई जय-जय मोदी कह रहा तो कोई हाय-हाय मोदी कह रहा है। किसी को मोदी नाम से उम्मीद की किरण दिखती है तो किसी को अस्तित्व नेस्तनाबूत होने की चिंगारी।

जिधर देखो ऊधर मोदी नाम का राग अलापा जा रहा है। आखिर! ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी की सोते-जागते मोदी-मोदी ही दिखाई दे रहे हैं। जैसे मोदी नहीं हुआ कोई हौआ हो, चिकित्सीय भाषा में कहें तो तेजी से पनपता मोदी फोबिया।

इस वैतरणी में आम जन राहत की सांस ले रहा है वहीं सत्ता की तडप में नेताओं की बेचैनी बढ़ रही है। तभी तो मोदी नाम से जगजाहिर देश के प्रधानमंत्री नहीं अपितु प्रधान सेवक नरेन्द्र मोदी के एक साहसिक फैसले ने भांति-भांति की विचारधारा वाले नेताओं को सत्ता बचाने और हथियाने की जुगत में एक झटके में मंचासिन कर दिया।

प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोट बंद करने का ऐलान क्या किया तथाकथित नेताओं को अपनी जमीन खिसकती नजर आने लगी। जोरदार तरीके से नेताओं की जमात मोदी का विरोध करने में मशगुल हो गई।

उद्वेलित नोटबंदी नहीं वरन् नोट बदलने के निर्णायक फरमान को जनमानस ने हाथों-हाथ लेकर उत्पन्न मुसीबतों को दिल से गले लगाया। पहली बार तकलीफों की खुशमिजाजी राष्ट्रभक्ति का सबब बनी। यह पहल कदमी कुठिंत, भयभित और आंदोलित हुक्मरानों को नागवार गुजरी।

व्यथा बिन बुलाए बराती की भांति इन्होंने जन-जन को कुरेदना चालू किया कि कहीं भी दंश ऊबर जाए। लिहाजा हर बार की तरह इस बार भी बैंरग लौटकर कटोचते मन की पीडा में अपने पेट में अनचाहा दर्द बना लिया। ढूंढे से मर्ज नहीं मिल रहा, मिलेंगा भी कैसे? जब बेगानी शादी में अब्दुला दिवाने होते है तो हालात नासाज ही होंगे।

बदस्तूर, आम आदमी को जब नोटों के लेन-देन और रोजमर्रा के कामों में कोई गुरेज नहीं है तो आम पार्टियों के पेट में क्यों हो रहा दर्द? बेबश बेझोल मतांतर वाले नेता सुर में सुर मिलाते हुए छाती पीट-पीट कर मोदी हटाओ-देष बचाओं, नोटबंदी वापस लो और नोट नहीं पीएम बदलो, प्रधानमंत्री माफी मांगों आदि की कुंठा में जल रहे हैं।

बेशर्मी का आलम यह है कि आपातकालीन स्थिति की दुहाई देते हुए आपातकाल के जनकों की पार्टी थकती नहीं। इतना ही नहीं घोटालों में लिप्त और कालेधन के विरोध की कोख में पैदा होने वाले अगुआ भी कदमताल कर रहे हैं।

वाकई में देश की मौजूदा परिस्थिति इस बात की गवाई देती है कि संसद से सडक तक बेवजह कोहराम मचाया जाए। बिल्कुल भी नहीं। हां! यह अवश्य समझ में आता है कि नोट की चोट जरूर पडी हैं वोट पर। अलबत्ता, यह विरोध के स्वर कालेधन की गोलबंदी है या मोदी के राष्ट्रहितैषी, जनप्रिय निर्णय में जलते प्रतिशोध की ज्वाला।

दरअसल मोदी शुरू से ही विपक्षी राजनीतिक आकाओं की जुबान पर समाए हुए हैं जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वह मौत के सौदागर बने। प्रधानमंत्री बनते ही साम्प्रदायिक शक्तियों के बाहुबली कहलाए। स्वच्छता अभियान का शंखनाद किया तो नौटंकीबाज बोले गए। जन-धन व बीमा योजनाएं को अमलीजामा पहनाया तो मुंगेरी लाल के हसीन सपने की संज्ञा मिली।

सब्सिडी बैंकों में जमा करवाए जाने लगी तो गरीब विरोधी माने गए। सीमा पार दुश्मन की मांद में सर्जिकल स्ट्राइक करते हैं तो खून के सौदागर नाम से नवाजे गए। और तो और विदेश दौरों को लेकर भी काफी माखौल उड़ाया गया। मर्यादा की सारी हदें पार करने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी गईं, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने लक्ष्यभेदी नजर से देश को प्रगतिपथ पर आगे बढ़ाए रखा।

नतीजतन मंजिल निकट आने लगी तो विपक्षियों के पेट में चूहे काटने लगे। तलब भूख की दौड़ सत्ता प्राप्ति की तृष्णा में ही समाप्त होंगी। वस्तुतः हमें नेताओं के पेट में दर्द का इलाज बनने से बचना होगा क्योंकि यह मनवांछित छटपटाहट राजनैतिक वितृष्णा से ग्रसित है।

लिहाजा समय इसकी इजाजत हरगिज नहीं देता, बल्कि जरूरत है तो प्रधानमंत्री के जयघोष की! कालेधन के सफाई का सिपाही बनने की। सार्वभौम कण-कण में समाये भय-भूख, भ्रष्टचार, पूंजीवाद, नशा, आंतकवाद, बीमारी, बेगारी और जमाखोरी का विनाश जन-गण में होगा।

: हेमेन्द्र क्षीरसागर