केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई ) एक बार पुन: दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निशाने पर है। केजरीवाल का आरोप है कि सीबीआई अफसर फोन कर उनके कर्मचारियों को अपने आफिस में बुलाते हैं। केजरीवाल का कहना है कि सीबीआई द्वारा बिना किसी नोटिस के स्टाफ को बुलाना गलत है।
दिल्ली सचिवालय में विगत माह सीबीआई का छापा पड़ा था, जिसमें केजरीवाल के एक करीबी अधिकारी पर शिंकजा कसने के साथ ही उसके पास से लाखों रुपए भी बरामद हुए थे। तब से सीबीआई और केजरीवाल के बीच तकरार जैसी चल रही है।
केजरीवाल बार-बार इस जांच एजेंसी पर उन्हें परेशान करने का अरोप लगाते रहते हैं। वहीं सीबीआई को बार-बार सफाई देनी पड़ रही है कि वह छापा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कार्यालय में नहीं पड़ा था। अब एक बार पुन: सीबीआई द्वारा उक्त मामले की जांच के लिए मुख्यमंत्री केजरीवाल के कार्यालय के पूरे स्टाफ को तलब किया गया है।
यहां सवाल यह उठता है कि अगर केजरीवाल ईमानदारी पूर्ण राजनीतिक कार्य संस्कृति का दावा करते हैं तथा उन्होंने या उनके अधिकारियों ने कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं किया है तो फिर आखिर वह दहशत में क्यों हैं?
केजरीवाल बार-बार यह दावा करते हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा उन्हें परेशान करने की दृष्टि से उनके काम काज में बाधा डालने के लिए दिल्ली के उपराज्यपाल का इस्तेमाल किया जा रहा है साथ ही सीबीआई भी केन्द्र सरकार के मोहरे के रूप में काम कर रही है।
अगर केजरीवाल के इन दावों में सच्चाई होगी तो भाजपा की केन्द्र सरकार, उसके मंत्रियों एवं अन्य जिम्मेदार नेताओं को भविष्य में इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
अभी तो केजरीवाल को चाहिए कि वह चर्चा में बने रहने तथा अपनी नाकामियों पर से जनमानस का ध्यान हटाने के लिए हैरतंगेज बयानबाजी करने के बजाय अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से करें। सीबीआई देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी है तथा उसकी संपूर्ण जांच प्रक्रिया एवं कार्यवाही पूरी तरह से निष्पक्ष, जवाबदेहीपूर्ण, भेदभाव रहित एवं परिणाममूलक हो, देश के लोग यही उम्मीद करते हैं।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सीबीआई पर जिस तरह से केन्द्र सरकार के हाथ की कठपुतली बनने, केन्द्र में सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने के जो आरोप लग रहे हैं वह चिंता का विषय तो हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सीबीआई के दुरुपयोग का बहाना बनाकर अरविंद केजरीवाल, उनके करीबी कोई भी अधिकारी, कोई भी राजनेता या अन्य कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति अपने करनामों पर पर्दा डाल सके।
विगत माह केजरीवाल के करीबी उक्त अफसर के यहां जब छापा पड़ा था तब भी केजरीवाल ने खूब भड़ास निकालते हुए अपने उक्त करीबी अफसर को पाक साफ करार दिया था, लेकिन बाद में उक्त अफसर के दफ्तर से जो लाखों रुपए बरामद हुए वह तो अवश्य ही किसी न किसी काले कारनामे का संकेत देते हैं।
केजरीवाल आखिर यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि खुद के बहुत बड़े क्रांतिकारी होने का दावा करके तथा राजनीतिक विरोधियों की लानत-मलानत करके राजनीतिक सत्ता तो हासिल की जा सकती है लेकिन खुद का वास्तविक क्रांतिपूर्ण व्यक्तित्व प्रमाणित करने के लिए सत्ता प्राप्ति के बाद प्रतिबद्धता एवं ईमानदारीपूर्ण काम भी करने पड़ते हैं?
केजरीवाल को यह समझना होगा कि सिर्फ राजनीतिक ताकत ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है। राजनीतिक ताकत न होने पर भी अगर किसी व्यक्ति में पर्याप्त नैतिक ताकत है तो फिर सीबीआई तो क्या विश्व की कोई भी जांच एजेंसी उसका बाल भी बांका नहीं कर सकती।
दिल्ली की सत्ता हासिल होने के बाद केजरीवाल की राजनीतिक ताकत तो बढ़ी है लेकिन उनमें शायद नैतिक ताकत अर्थात नैतिकता का घोर अकाल पड़ गया है, यही कारण है कि हुंकार भरने वाली उनकी जुबां से अब चीख निकलने लगी है।
यही कारण है कि वह मुख्यमंत्री रहते अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से कर नहीं पा रहे केजरीवाल द्वारा अपनी असलियत उजागर होने के डर से इधर-उधर की बातें की जाने लगती हैं। केजरीवाल जब देखो तब अपने काम-काज में केन्द्र सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप का आरोप लगाते रहते हैं, उनके इन आरोपों में अगर सच्चाई होगी तो उन्हें सताने वाले भविष्य में धूल चाटने के लिए मजबूर हो जाएंगे लेकिन केजरीवाल अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन तो सही ढंग से करें।
वैसे भी केजरीवाल पूर्व नौकरशाह हैं इस तरह से दिल्ली के केन्द्र शासित प्रदेश होने तथा इस प्रदेश की संवैधानिक जटिलताओं की पर्याप्त समझ तो केजरीवाल को वैसे भी होनी चाहिए। साल 2013 से पूर्व केजरीवाल दिल्ली की सडक़ों में घूम-घूमकर जब शीला दीक्षित चोर है के नारे लगाया करते थे तो कुछ लोगों का यह लगता रहा होगा कि नया मसीहा आया है, जो रातों-रात दिल्ली का कायाकल्प कर देगा।
उन्हीं लोगों ने दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल को सिर-आंखों पर बिठाया तथा शीला दीक्षित नेपथ्य में चली गईं। केजरीवाल ने उक्त बयोवृद्ध दिल्ली की प्रतिष्ठित राजनेता पर चुनावी फायदे के लिए खूब आरोप लगाए लेकिन सत्ता प्राप्ति के बाद वह शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार का न तो कोई प्रमाण जुटा पाए और न ही उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर पाए।
देश के कतिपय स्वघोषित राजनीतिक मठाधीशों का एक बेहद विडंबनापूर्ण पक्ष यह भी है कि वह अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी की भी पगड़ी उछालने में संकोच नहीं करते फिर चाहे उनके निशाने पर आने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व, राजनीतिक व सामाजिक योगदान चाहे कितना ही विराट क्यों न हो। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को चाहिए कि वह सीबीआई के डर का बहाना न बनाएं तथा मुख्यमंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारियां सही ढंग से निभाएं।
सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्र्रवादी चिंतक हैं