पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में गृह और वित्तमंत्री पी चिदंबरम् ने कहा है कि अफजल को फांसी दिए जाने का फैसला शायद ठीक नहीं था।
उल्लेखनीय है कि भारतीय संसद पर कथित हमले के आरोपी अफजल को लगभग तीन साल पूर्व यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही फांसी की सजा दी गई थी। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदंबरम् ने एक विशेष साक्षात्कार में यह बात कही है।
जेएनयू में मचे घमासान और अफजल को फांसी दिए जाने के समर्थन और विरोध की पृष्ठभूमि में उपजी बहस के बीच पूर्व केन्द्रीय मंत्री चिदंबरम् का यह बयान खास मायने रखता है, लेकिन यहां सवाल यह पैदा होता है कि आखिर चिदंबरम् का जमीर जागने में इतना विलंब क्यों हो गया। वैसे भी साफ तौर पर बुद्धिजीवी वर्ग यह मानता है कि अफजल जैसे मामलों में सजा भले ही कोर्ट द्वारा तय की जाती है लेकिन कानून बनाने, केस दर्ज करने सहित अन्य वांछित कार्रवाई को अंजाम देने का दारोमदार तो राजनेताओं और उन पर निर्भर तंत्र पर ही रहता है।
फिर राजनेताओं द्वारा कानून बनाने से लेकर उसे अमली जामा पहनाने तक की प्रक्रिया में आखिर दूरदर्शिता, संवेदनशीलता व परिपक्वता का ध्यान क्यों नहीं रखा जाता? पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी चितंबरम्, अफजल को फांसी दिए जाने के लगभग तीन सान बाद ऐसा बयान दे रहे हैं, चिदंबरम् को अगर अफजल को फांसी दिए जाने का निर्णय अनुचित एवं पक्षपातपूर्ण प्रतीत होता है तो चिदंबरम् ने इस संदर्भ में समय रहते उपयुक्त पहल क्यों नहीं की।
चिदंबरम् कानून के भी अच्छे ज्ञाता हैं। पूर्ववर्ती यूपीए के शासनकाल में चिदंबरम् की गिनती प्रभावशाली मंत्रियों में होती थी तथा चिदंबरम् की कोई भी पहल सरकार के किसी भी निर्णय को बदलने तक का आधार बन सकती थी। ऐसे में चिदंबरम् यदि चाहते तो अपने प्रभाव का सदुपयोग सुनिश्चित करके अफजल की फांसी की सजा को उम्र कैद में तब्दील कराने की संभावना को भी मजबूत बना सकते थे।
लेकिन उस समय तो चिदंबरम् जैसे लोग सिर्फ तमाशबीन की ही भूमिका निभाते रहे तथा अब उक्त मसले पर बयानबाजी करके देश में अराजक माहौल बनाने वाले लोगों का साथ दे रहे हैं। देश के सत्ताधारियों से हमेशा ही यह उम्मीद की जाती है कि वह उच्च राजनीतिक संस्कारों और लोकतांत्रिक मूल्यों से आच्छादित रहें तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई भी ऐसा काम न करें जिससे किसी का तुष्टिकरण या किसी का उत्पीडन हो।
राजनीतिक दलों के नेताओं को चाहिए कि वह संबंधित राजनीतिक दल को लेकर अपनी प्रतिबद्धता और दलीय अनुशासन का ध्यान तो रखें लेकिन जब वह सत्ता में हों अर्थात् जनप्रतिनिधि हों तो उन्हें संबंधित राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि जनता के प्रतिनिधि के रूप में ही कार्य करना चाहिए। देश के प्रतिष्ठित जेएनयू में जो कुछ घटित हो रहा है तथा अफजल के मुद्दे पर जो भी प्रहसन चल रहा है वह देश की प्रतिष्ठा को तार-तार करने वाला है।
देश के विश्व विद्यालयों को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त बनाकर स्वस्थ अध्ययन- अध्यापन का मार्ग प्रशस्त करने के लिये आखिर समय रहते सार्थक पहल क्यों नहीं की जाती? छात्र-छात्राओं में अपने विद्यार्थी जीवन में ही नेतागीरी का बुखार चढऩे लगता है, जिसका नतीजा यह होता है कि न तो वह ठीक से पढ़ाई पूरी कर पाते हैं और न ही परिपक्व व क्षमतावान राजनेता बन पाते हैं।
इस स्थिति के लिए क्या राजनीतिक मठाधीश जिम्मेदार नहीं हैं? देश में ऐसे अनगिनत लोग होंगे जो बिनी किसी गुनाह के ही जेलों में सड़ रहे हैं, भले ही उनने कोई अपराध न किया हो लेकिन पक्षपात पूर्ण ढंग से उन पर केस दर्ज हो जाता है तथा जांच एजेंसियों द्वारा उन्हें फंसाने की संभावना को दृष्टिगत रखते हुए ऐसे तथ्यों, तर्कों व साक्ष्यों का जुगाड़ किया जाता है कि कोर्ट द्वारा उन्हें सजा सुनाने में देर नहीं लगती। ऐसे लोगों को आवश्यक कानूनी मदद न मिलने से वह कानून के चंगुल में पिस जाते हैं।
क्या देश के राजनेता बेकसूर लोगों को कानूनी शिकंजे से बचाने के लिए निष्पक्षतापूर्ण व साहसिक पहल कर सकते हैं? जवाब सिर्फ न में ही मिलेगा। अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी भी बेगुनाह को जेल भेज दो, उसे फांसी पर लटका दो फिर राजनीतिक दांव उल्टा पडऩे पर हाथ मलते रह जाओ और अपनी ही निर्णय प्रक्रिया को लेकर घडिय़ाली आंसू बहाओ। देश के राजनेता जब तक इस प्रवृत्ति से खुद की दूरी नहीं बनाएंगे तब तक उनकी श्रेष्ठता व विश्वसनीयता का संकट बना ही रहेगा।
: सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं