एक साथ तीन गोल्ड स्कीम जारी कर केंद्र सरकार देश की जनता को सोने के मोहपाश से मुक्त कराना चाहती है। पिछले कुछ वर्ष में लाख कोशिशों के बावजूद देश में सोने की मांग कम होने का नाम नहीं ले रही थी, इसीलिये अब गोल्ड मोनेटाइजेशन, गोल्ड बांड और गोल्ड कायन एंड बुलियन स्कीम लाई गयी हैं।
पहली योजना में घर पड़े गहने और सोना बैंकों में जमा कराने पर जनता को करीब ढाई प्रतिशत ब्याज मिलेगा जबकि आठ वर्ष की अवधि का गोल्ड बांड खरीदने पर 2.75 फीसदी ब्याज देने की व्यवस्था है। तीसरी योजना के अंतर्गत सरकार ने अशोक चक्र के निशान वाले सोने के सिक्के बाज़ार में उतारे हैं, जिनकी शुद्धता की गारंटी है।
वैसे वर्ष 1962 में भी सरकार ने 15 साल की अवधि के गोल्ड बांड जारी किये थे, जिनपर छह प्रतिशत सूद देने का प्रावधान था। इस योजना का अपेक्षित परिणाम नहीं मिला। सोने की मांग कम होने के बजाय बढ़ गयी थी, जिस कारण एक साल बाद ही केंद्र को स्वर्ण नियंत्रण कानून लाना पड़ा।
सोना हमारी संस्कृति का हिस्सा है और उसे अर्थशास्त्र के नियमों के अनुसार हांका नहीं जा सकता। पश्चिमी देशों में जहाँ इस पीली धातु को डेड इन्वेस्टमेंट माना जाता है वहीँ भारत में इसे पवित्रता और आर्थिक सुरक्षा की गारंटी। हमारे लिए सोना लक्ष्मी का प्रतीक है। संपन्नता का सूचक है, इसीलिए थोड़ा सा पैसा जमा होते ही हर भारतीय सोना खरीदना चाहता है।
इस मामले में शिक्षित-अशिक्षित तथा संपन्न-निर्धन में सोच का कोई फर्क नहीं है। हिन्दुओं में अक्षय तृतीया और धनतेरस जैसे पर्व तो सीधे-सीधे स्वर्ण खरीद से जुड़े हैं। मन्दिरों में भगवान के चरणों में सोना अर्पित करने की परम्परा सदियों पुरानी है। इसी कारण कई बड़े मन्दिरों के पास अकूत स्वर्ण भंडार है।
तीन बरस पहले पदमनाभन मन्दिर के तहखाने से मिले खजाने की चकाचौंध से अब तक लोगों की आँखें चुंधियाई हुई हैं। एक अनुमान के अनुसार तिरुपति बालाजी मन्दिर के पास लगभग एक हजार टन सोना है, जो देश का एक साल का आयात बिल भरने को पर्याप्त है।
हिन्दू ही नहीं अनेक सिख, ईसाई, मुस्लिम, जैन और बुद्ध धार्मिक स्थल भी अपनी स्वर्ण नक्काशी और भंडार के लिए विख्यात हैं। इस क्रम में अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर, आगरा की मस्जिद, कर्नाटक के बौद्ध मठ और अजमेर के जैन मन्दिर का नाम आसानी से लिया जा सकता है। यदि यह सारा सोना अर्थव्यवस्था के कल्याण में लग जाये तो देश का काया पलट हो सकता है। यह काम असंभव नहीं, पर कठिन जरुर है।
आज दुनिया का एक चौथाई सोना अकेले हिन्दुस्तानी खरीदते हैं. चालू खाते के घाटे पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार ने सोने के आयात को नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन अब तक उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। वित्त मंत्री ने स्वर्ण आयात शुल्क बढ़ाकर ढाई गुना कर दिया है फिर भी इसकी मांग कम नहीं हुई है।
दुनिया और भारत के स्वर्ण बाजार भाव में आज ख़ासा अंतर है फिर भी शादी-ब्याह का सीजन शुरू होते ही लोग धड़ाधड़ गहने खरीदने लगते हैं। हमारे यहाँ विवाह में गहने देने का रिवाज सदियों पुराना है। माना जाता है कि किसी शादी का तीस से पचास प्रतिशत खर्च अकेले जेवरों पर होता है। गरीब या अमीर सभी अपनी हैसियत के हिसाब से बेटी-बहू को आभूषण देते हैं।
अर्थशास्त्र के जो प्रोफेसर अपनी कक्षा में छात्रों को सोने के बजाय शेयर बाजार में पैसा लगाने का पाठ पढ़ाते हैं, घर लौटकर पहली फुर्सत में वे अपनी बचत के बड़े हिस्से से बीबी-बच्ची के लिए गहने गढ़वाते हैं। महिलाओं के लिए तो सोना उनके आड़े वक्त का बीमा है। कानूनन जेवर-गहने स्त्री-धन की श्रेणी में आते हैं और उन पर विवाहिता का एकाधिकार होता है. इसी कारण कहा जाता है कि हर लड़की की शादी पहले गहनों से होती है, बाद में लड़के से।
देश का मौजूदा स्वर्ण भंडार बीस से चालीस हजार टन के बीच आंका जाता है और इसका सत्तर फीसदी हिस्सा गांवों-शहरों में रहने वाले करोड़ों लोगों के पास है। भारतीय रिजर्व बैंक के पास तो मात्र 557.7 टन सोना है जो हमारी मुद्रा (रूपए) की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
जनता की सोने की भूख के कारण ही सरकार को हर साल सैकड़ों टन सोना आयात करना पड़ा. पिछले छह बरस में चालू खाते का घाटा बढ़कर कई गुना हो जाने का एक प्रमुख कारण सोने का भारी आयात भी है। हमारे देश में सोना खरीदना और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रखना जनता का शौक नहीं, जुनून है।
सोने से जुड़ी हर खबर भारतीय जनमानस को झकझोर देती है. चाहे खबर सोने के भाव में उतार-चढ़ाव से उपजी हो या छिपा खजाना मिलने से। जब सोने के भाव में गिरावट आती है तब सुनारों की दुकानों के सामने ग्राहकों की लंबी लाइन लग जाती है।
गत वर्ष उन्नाव जिले में सोने की खोज का काम शुरू हुआ तो वहां मेला लग गया. भारत में सोने को आर्थिक सिद्धांतों के तराजू में तोला नहीं जा सकता. इसीलिए कहा जा सकता है कि अर्थशास्त्र के नियम लोगों का जीवन नहीं बदल सकते, नियमों को जनता के जीवन के अनुरूप ढालना पड़ता है। भारत में तो यह बात शत-प्रतिशत लागू होती है।
-धर्मेन्द्रपाल सिंह