Warning: Undefined variable $td_post_theme_settings in /www/wwwroot/sabguru/sabguru.com/news/wp-content/themes/Newspaper/functions.php on line 54
जवाहर लाल नेहरू को क्या डर था सुभाषचंद्र बोस से - Sabguru News
Home Headlines जवाहर लाल नेहरू को क्या डर था सुभाषचंद्र बोस से

जवाहर लाल नेहरू को क्या डर था सुभाषचंद्र बोस से

0
जवाहर लाल नेहरू को क्या डर था सुभाषचंद्र बोस से
why subhas chandra bose's death is india's biggest cover up
why subhas chandra bose's death is india's biggest cover up
why subhas chandra bose’s death is india’s biggest cover up

इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि जिन देशभक्तों ने स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनको सम्मान देने की बजाय स्वतंत्रता के बाद बीस वर्षों तक उनके परिवार की जासूसी भारत सरकार की एजेन्सी आई.बी. करती रही। देश के सामने आंदोलित करने वाला सवाल है कि किन कारणों से यह जासूसी की, इसके पीछे किस राजनेता का स्वार्थ था?

इन सवालों का उत्तर १९३९ में अपने भतीजे अमित नाथ को सुभाषचंद्र बोस ने जो पत्र लिखा, उसमें कहा गया कि मेरा किसी ने भी उतना नुकसान नहीं किया। जितना जवाहर लाल नेहरू ने किया है। वरिष्ठ पत्रकार एवं भाजपा प्रवक्ता एम.जे. अकबर ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि सीधे प्रधानमंत्री नेरूजी को रिपोर्ट करने वाली आईबी की ओर से सुभाषचंद्र बोस के परिवारजनों की लम्बे समय तक जासूसी करने की एक वाजिब वजह जान पड़ती है।

सरकार आश्वस्त नहीं थी कि सुभाष बोस की मौत हो चुकी है। उसे लगता था कि अगर वे जिन्दा है तो कोलकत्ता में स्थित अपने परिवार जनों के सम्पर्क में होंगे। आखिर इस बारे में संदेह करने की जरूरत क्या थी, बोस ऐसे करिश्माई नेता थे, जो कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर सकते थे और १९५७ के चुनाव में गंभीर चुनौती खड़े कर सकते थे।

जिस गठबंधन ने कांग्रेस को १९७७ में हराया। १९६२ के चुनाव में या फिर १५ वर्ष पहले ही कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया होता। १९५६ की शाहनवाद कमेटी और १९७४ में खोसला आयोग ने निष्कर्ष दिया कि नेताजी की मृत्यु विमान हादसे में हुई।

इन निष्कर्षों को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने १९७८ में खारिज कर दिया था, जस्टिस एम.के. मुखर्जी ने कहा कि नेताती बोस ने अपनी मौत की झूठी खबर बनाई और उसके बाद सोवियत संघ चले गए। इस बारे में सुब्रह्मण्यम स्वामी ने खोसला आयोग के समक्ष नेहरूजी के स्टेनोग्राफर श्यामलाल जैन की गवाही का हवाला देते हुए कहा कि जैन ने एक पत्र टंकित किया था जो नेहरूजी ने १९४५ में स्टालिन को भेजा था, जिसमें बोस को बंधक बनाने की बात स्वीकारी थी।

उनका भी मानना है कि विमान हादसा फरेबा था, नेताजी ने सोवियत संघ में शरण ली थी। बाद में स्टालिन उन्हें मरवा दिया। यह भी जनता में चर्चा रही कि उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में वे संन्यासी बनकर रहे और उनकी मृत्यु १९८५ में हुई। यह बात भी विश्वास करने लायक है कि जिस ताइबान के विमान की दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु बताई जाती है वहां कि सरकार के रिकार्ड में ऐसा कही उल्लेख नहीं है कि जिसमें उस माह की तिथि में ताइबान का विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था।
यह भी बताया जाता है कि १५० फाइलों के गोपनीय दस्तावेज पिछले ६० वर्षों में तैयार किए गए। गृह मंत्रालय ने ७० हजार पन्नों के गोपनीय दस्तावेज तैयार किए है। अब यह सवाल प्रासंगिक है कि इनकी गोपनीयता का रहस्य क्या है। यह भी संभव है कि तत्कालीन पं. नेहरू की सरकार ने नेताजी सुभाष बोस के जीवन की सच्चाई छिपाई।

यदि इस संदर्भ को आधार मानकर समीक्षा की जाय तो देश विभाजन से लेकर १९६२ में चीन के द्वारा भारती की पराजय, कश्मीर का विवाद और आतंकवाद की समस्या की जड़ में पं. नेहरू की गलत नीतियां रही जो अभी तक देश भुगत रहा है। यह भी सवाल है कि देश में पं. नेहरू के स्थान पर नेताजी सुभाष बोस की सरकार होती तो क्या होता?

इस बात में संदेह नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस प्रखर राष्ट्रवादी विचारों के थे। इस बारे में एक किताब का संदर्भ देकर झूठ फैलाया गया कि सुभाषचंद्र बोस भारत में नाजी व्यवस्था की तानाशाही चाहते थे। जबकि सच्चाई यह है कि जब सुभाष बोस ने अस्थाई सरकार गठित करते समय उन्होंने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद इस सरकार का विसर्जन कर चुनी हुई सरकार को अधिकार सौंप दिये जायेंगे। यह भी सच्चाई है कि स्वतंत्रता के मिशन पूरा करने के लिए वे हिटलर के संपर्क में आए।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय किसी को भी पता नहीं था कि युद्ध में किसकी विजय होगी। उस समय के शक्तिशाली राष्ट्रों के सहयोग से भारत को स्वतंत्र कराने के मिशन को अनुचित नहीं कहा जा सकता। देश की जनता ने सुभाषचंद्र बोस ने स्वतंत्रता के लिए जो लड़ाई लड़ी, उसको हमेशा प्रणाम किया है। सुभाष बोस ने देश के लिए जो त्याग, तपस्या की।

उसके लिए हमेशा सुभाष चंद्र बोस प्रेरणा स्रोत रहेंगे। जय हिन्द, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। ये नारे देशभक्ति के प्रतीक बन गये है। ये भारत के कपाल पर हमेशा अंकित रहेंगे। इस संदर्भ में उल्लेख करना होगा कि नेहरूजी से मनमोहन सिंह तक जितने प्रधानमंत्री हुए वे भाषण के अंत में जय हिन्द का नारा लगाते रहे है। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाषण के अंत में भारत माता की जय का उद्घोष करना प्रारंभ किया है। वैसे दोनों नारों से देशभक्ति की भावना का संचार होता है।

उस समय जब देश अंग्रेजों की गुलामी में जकड़ा हुआ था, उस समय सुभाष चंद्र बोस न केवल आईसीएस की नौकरी को ठुकराया वरन् देश को स्वतंत्र करने के लिए राष्ट्रवादी चेतना को एकडोर में पिरोने की कोशिश की। इस संदर्भ में उस घटनाक्रम का उल्लेख करना होगा जब सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से मिलने नागपुर पहुंचे थे, उस समय डॉ. हेडगेवार गंभीर रूप से बीमार थे इसलिए वे उनसे चर्चा नहीं कर सके।

आजाद हिन्द सेना का न केवल गठन किया वरन् हथियारों से लैस कर अंगे्रज सरकार ध्वस्त करने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी। विडंबना यह रही कि जर्मनी, जापान, इटली की सेनाओं को मित्र देशों की सेनाओं से पराजय मिला अति महत्वकांक्षा भी हिटलर के पतन का कारण रही।

हम द्वितीय विश्व युद्ध की हार जीत की समीक्षा नहीं करते, इन बातों का उल्लेख इतिहास में है, हमें देशभक्तों के त्याग बलिदान का स्मरण करना होगा, देश के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। जिन अंग्रेजों के विशाल साम्राज्य को चुनौती देने के जिन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया, उनके देश के लिए किए गए कार्यो का सच्चाई के आधार पर स्मरण कर नमन करना होगा। यह पाप किसी देश की सरकार ने नहीं किया होगा कि इतिहास के तथ्यों से छेड़छाड़ की हो।

दुर्भाग्य से यह पाप इतिहास के साथ स्वतंत्र भारत में हुआ है। देश के लिए जीने मरने वालों के बलिदान को सरकारी स्याही से मिटाने की पहल हुई, भावी पीढ़ी को अंग्रेजों के समय लिखे पराजय इतिहास को पढ़ाया गया। इससे युवा पीढ़ी में अपनी संस्कृति, परम्परा महापुरूषों के बारे में भ्रम पैदा होने के साथ हीन भावना भी पैदा हुई।
हम महान पूर्वजों की संताने है, इस गौरव भाव को भी धूमिल करने की पहल राजनैतिक स्वार्थ के लिए की गई। ऐसा लगा कि एक दो नेताओं ने ही स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी। यही कारण है कि सडक़, स्कूल, कॉलेज और संस्थाओं का नामकरण इन दो के नाम पर हुआ।

यह भी भ्रम पैदा किया गया कि स्वतंत्रता हमें केवल अहिंसा से प्राप्त हुई, जबकि १८५७ से अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ हुआ, जिसकी खंडित परिणिति १९४७ में हुई। कई क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर चढ़ गए। वीर सावरकर ने अंडमान की जेल की यातनाएं बर्दाश्त की, कोल्हू चलाया, उनके समान त्याग-बलिदान कितनों का रहा?

सुभाष चंद्र बोस को भुलाने की कोशिश होते हुए भी देश उन्हें भुला नहीं सका। यह इतिहास अधिक पुराना नहीं है, जब १९४७ में भारत की स्वतंत्रता का प्रस्ताव ब्रिटेन संसद में प्रस्तुत हुआ तो द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन को विजय दिलाने वाले चर्चिल ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनका तर्क था कि भारत को ब्रिटेन के अधीन नहीं रखने से हमें काफी आर्थिक नुकसान होगा। विश्वयुद्ध के बाद चर्चिल की पार्टी की ब्रिटेन में पराजय हो गई थी।

एटली प्रधानमंत्री बने, उन्होंने चर्चिल की बातों का विरोध करते हुए कहा कि भारत की सेना हमारे नियंत्रण में नहीं है, युवा हमारे खिलाफ हो गए है, ऐसी स्थिति में भारत पर नियंत्रण करना कठिन है। एटली ने कही भी अहिंसक आंदोलन का उल्लेख नहीं किया। सवाल यह महत्व का नहीं है कि ब्रिटेन की सरकार ने स्वतंत्रता के कारणों के बारे में क्या कहा है, लेकिन स्वतंत्रता के इतिहास के तथ्यों को बदलना एक प्रकार का अपराध है।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बारे में सच्चाई को क्यों छिपाया गया? पूरे देश को उनके सही इतिहास को जानने की जिज्ञासा हमेशा रही है। सुभाषचंद्र बोस का परिवार इस बात को मानने को कभी तैयार नहीं हुआ कि उनकी मृत्यु विमान दुर्घटना में हुई। तीन आयोग के बाद भी सच्चाई सामने नहीं आई। सरकार ने बीस वर्षों तक सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी क्यों करवाई गई।

बोस की बेटी अनिता समेत उनका परिवार चाहता है कि जासूसी की सच्चाई को देश जाने। इतिहासकार रूद्राशु मुखर्जी की किताब में कहा है कि बोस जानते थे कि वे और जवाहर लाल मिलकर इतिहास बना सकते थे लेकिन जवाहरलाल को गांधीजी के बिना अपनी नियति दिखाई नहीं देती थी, जबकि गांधीजी के पास सुभाष के लिए कोई जगह नहीं थी।

जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जर्मनी यात्रा पर गए तो सुभाष बोस के पौत्र सूर्या बोस उनसे मिले थे, उन्होंने भी बोस परिवार की जासूसी की शिकायत करते हुए गोपनीय दस्तावेजों की सच्चाई जनता को बताई जाने की मांग की।  मोदी ने तुरंत गृह मंत्रालय के प्रमुख सचिव को इसके लिए सचिव स्तर की समिति बनाई, जो अपनी रिपोर्ट शीघ्र देगी। सवाल महत्व का यही है कि बीस वर्षों तक सुभाषचंद्र बोस के परिवार की जासूसी क्यों की गई?

क्या उनके दस्तावेजों को उजागर करने से देश को खतरा था? क्या इससे किसी को राजनैतिक हानि होती? इन सवालों का उत्तर और संदेह यही हो सकता है कि स्वतंत्रता के बाद सोलह वर्षों तक पं. नेहरू का करिश्माई नेतृत्व था। यदि उस समय बोस देश में प्रकट होकर राजनीति में सक्रिय होते तो पं. नेहरू के नेतृत्व को कठिन चुनौती हो जाती और सुभाष चंद्र बोस को स्वीकार करने में जनता देर नहीं करती। देश के लिए त्याग, तपस्या का आकलन करे तो सुभाष चंद्र बोस का पलड़ा भारी होगा। महान देशभक्त के बारे में सच्चाई जानना भारत की जनता का अधिकार है।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here