लोकसभा की अध्यक्षा सुमित्रा महाजन बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने देश की महिला सांसदों और विधायकों का सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में स्त्री-शक्ति का आह्वान जितना महिलाओं ने किया, उससे ज्यादा पुरुषों ने किया।
संक्षेप में कहें तो पुरुषों ने अपने गाल बजाए या बस थूक बिलोया। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि इन्हीं नेता लोगों ने पिछले 20 साल से उस विधेयक को अधर में लटका रखा है, जिसके कानून बनने पर हमारी विधानसभाओं और संसद में 33 प्रतिशत महिलाएं आ जातीं। हमारी जनसंख्या में महिला लगभग 50 प्रतिशत हैं लेकिन संसद में वे सिर्फ 12 प्रतिशत हैं और विधायिकाओं में सिर्फ 9 प्रतिशत हैं।
कई अन्य महत्वपूर्ण व्यवसायों और क्षेत्रों में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या और भी कम है। संसद में जब-जब स्त्रियों की सीटें आरक्षित करने का प्रश्न उठा है, हमारे कुछ पुरुष सांसदों ने हंगामा मचा दिया। इस विधेयक को न तो कांग्रेस सरकार कानून बना सकी और न ही भाजपा सरकार!
कांग्रेस सरकार ने इसे राज्यसभा में पारित करवा लिया लेकिन लोकसभा से पारित करवाने की हिम्मत वह नहीं जुटा सकी। भाजपा की वर्तमान सरकार को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला हुआ है लेकिन वह भी दो साल से चादर तानकर सोई हुई है। इस विधेयक को कानून बनवाने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा।
जाहिर है कि नेता लोगों के दिल में डर बैठ गया है। यदि एक-तिहाई औरतें चुनी गईं तो कम से कम ढाई सौ नेता लोकसभा और राज्यसभा से हाथ धो बैठेंगे। कुछ नेता औरतों के आरक्षण में भी आरक्षण मांग रहे हैं। दलित और पिछड़ी औरतों के लिए।
उनका कहना है कि औरतों की सीटों पर सब ‘बाब-कट’ और पाउडर-लिपिस्टिक वाली मेमें कब्जा कर लेंगी। इन नेताओं से मैं पूछता हूं कि आप लोगों में क्या न्यूनतम ईमानदारी भी नहीं है? आप टिकिट बांटते समय उक्त बात का ध्यान क्यों नहीं रख सकते?
जात ने सरकारी नौकरियों को पहले ही सांसत में डाल रखा है। नौकरियों से जातीय आरक्षण पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए लेकिन जात के आधार पर कुछ वर्ष तक संसद और विधानसभा में स्त्री-आरक्षण दिया जा सकता है। यदि उसमें धांधली होती दिखे तो उसे रद्द भी किया जा सकता है। सीटों के लिए जातीय आधार पर किया गया स्त्री-आरक्षण और सामान्य जातीय आरक्षण में भी ताल-मेल बिठाना जरुरी है।
यदि हमारे नेता वास्तव में सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना चाहते हैं तो वे अपने मंत्रिमंडल में एक-तिहाई स्थान महिलाओं को क्यों नहीं दे देते? इसके लिए तो किसी संविधान संशोधन की जरुरत नहीं है। वे अपने पार्टी-पदों पर महिलाओं को एक-तिहाई स्थान क्यों नहीं दे देते? उन्हें किसने रोका है? उन्हें रोकनेवाला सिर्फ उनका अपना निहित स्वार्थ है। आज स्वार्थ-सिद्धि का सबसे बड़ा साधन है राजनीति। उसके बिना राजनीति शून्य है।
डा. वेद प्रताप वैदिक