लखनऊ। वर्ष 2015 में अदालती हस्तक्षेप से उत्तर प्रदेश सरकार की जो किरकिरी हुई उसे वह शायद नये साल में भी न भुला पाये। लोकायुक्त की नियुक्ति से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग व माध्यमिक शिक्षा सेवा आयोग के अध्यक्षों और भ्रष्टाचार में आरोपित यादव सिंह के मामलों तक में न्यायालय को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा। हर बार अदालत को सरकार की नीतियों के विरोध में न केवल दखल देना पड़ा बल्कि कड़े फैसले भी लेने पड़े। इससे राज्य सरकार की काफी फजीहत हुई।
दरअसल देश व प्रदेश में कुछ प्रमुख पद ‘संवैधानिक पद’ की श्रेणी में आते हैं। इन पदों की अपनी एक गरिमा है। लेकिन, इन संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के आचरण पर जब कभी उंगली उठती है, तो वह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है और जब न्यायालय के हस्तक्षेप से उनकी बर्खास्तगी होती है तब वह शर्मनाक हो जाता है।
लोकायुक्त प्रकरण
लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में सरकार द्वारा भेजे जा रहे नाम जब राज्यपाल को संविधान के अनुकूल नहीं लगे तो उन्होंने उक्त नामों की सूची को पांच बार राज्य सरकार के पास वापस भेजा। लेकिन सरकार ने हर बार राज्यपाल के निर्देशों की अनदेखी की। इस दौरान कानून बदलने का प्रयास भी किया गया। अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करके संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए लोकायुक्त की नियुक्ति स्वयं कर दी। देश के इतिहास में इसे संवैधानिक असफलता करार करते हुए न्यायालयीय हस्तक्षेप माना गया है। भाजपा जैसी विरोधी पार्टी इस अदालती हस्तक्षेप के बाद मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगने लगी।
यादव सिंह मामला
नोएडा के पूर्व मुख्य अभियंता यादव सिंह के खिलाफ हजार करोड़ से भी अधिक के भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच सीबीआई से न हो इसके लिए सरकार जिस हद तक गई सभी को मालूम है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच का आदेश दिया तो सरकार उच्चतम न्यायालय पहुंच गई। फिर शीर्ष न्यायालय ने जो टिप्पणी की उससे न केवल सरकार की फजीहत हुई बल्कि मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल की भी खूब किरकिरी हुई।
दरअसल यादव सिंह प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने सीबीआई जांच के आदेश राज्य सरकार के उस जिद के बाद दिए जिसमें सरकार किसी भी सूरत में स्वेच्छा से मामले की सीबीआई जांच कराने को तैयार नहीं थी। ऐसे में कोर्ट का यह आदेश राज्य सरकार को एक तरह नसीहत भी दे गया है कि किसी भी मामले पर व्यतिगत रुख अपनाने से पहले सरकार यह ध्यान रखें कि अभी राज्य की न्यायिक व्यवस्था जिंदा व सशक्त है।
आयोगों के अध्यक्षों व सदस्यों की बर्खास्तगी
उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग, माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड और उच्चतर शिक्षा आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियम विरुद्ध नियुक्तियों को लेकर भी उत्तर प्रदेश सरकार की इस साल खूब किरकिरी हुई। सरकार ने नियमों को अनदेखा कर अपने करीबियों को इन कुर्सियों पर बैठा दिया था। लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव की नियुक्ति और उनकी कार्यप्रणाली को लेकर प्रदेश भर में प्रतियोगी छात्रों ने खूब आंदोलन भी किया था।
बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनकी नियुक्ति ही अवैध करार कर दी गई और उन्हें पद से हटाए जाने का आदेश दे दिया। हाईकोर्ट का यह फैसला राज्य सरकार के लिए बड़ा झटका माना गया। अब किसी भी सरकार की कार्यशैली पर इससे बड़ा प्रश्न चिन्ह क्या होगा कि उसके द्वारा एक संवैधानिक पद पर की गयी नियुक्ति को न्यायालय अवैध घोषित कर दे। राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के पद पर अनिल यादव की नियुक्ति तो शुरू से ही विवादित रही थी किन्तु उनके अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह से पूरा आयोग ही विवादित हो गया वह ज्यादा विचलित कर रहा था।
उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष के बाद सबसे ताकतवर अधिकारी सचिव होता है। इस पद पर नियुक्त किये गये रिजवानुर्रहमान के काम करने पर भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रोक लगाते हुए उन्हें हटाने का आदेश कुछ दिन पहले ही दे दिया था।
इसी तरह उच्चतर शिक्षा सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष लाल बिहारी पांडे एवं तीन सदस्य रामवीर सिंह यादव, डॉ. रूदल यादव व अनिल कुमार सिंह को भी उच्च न्यायालय ने बर्खास्त कर दिया। इसके अलावा माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष सनिल कुमार तथा तीन सदस्य अनीता यादव, आशा लता सिंह व ललित कुमार भी हाईकोर्ट से बर्खास्त किये गये। इस तरह अदालत द्वारा ताबड़तोड़ की गई बर्खास्तगियों से राज्य सरकार की बड़ी छीछालेदर हुई।
शिक्षामित्रों का समायोजन
चुनावी घोषणा पत्र के अहम वादे शिक्षामित्रों के समायोजन पर भी अखिलेश सरकार कोर्ट में फंस गई है। लगभग पौने दो लाख शिक्षामित्रों के समायोजन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। हांलाकि उच्चतम न्यायालय से सरकार को इसमें थोड़ा राहत मिली है।
पुलिस की कार्यशैली पर भी सख्त टिप्पणी
अदालत ने उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यशैली पर भी सख्त टिप्पणी की है। इस साल सहारनपुर की एक महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुलिस की कार्यशैली पर भी सवाल उठाते हुए सरकार को कड़ी फटकार लगाई। अदालत ने अपराधों की विवेचना में पुलिस के रवैये पर तीखी टिप्पणी करते हुए उसे अपनी कार्यशैली में सुधार लाने का सख्त निर्देश भी दिया।
कोर्ट ने यहां तक कहा कि उत्तर प्रदेश पुलिस बेलगाम हो गई है। समय रहते उसका रवैया नहीं सुधारा गया तो स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएंगी। कोर्ट ने राज्य सरकार एवं गृह विभाग के उच्च पदों पर बैठे बड़े अधिकारियों को भी फटकारा और कहा कि अधिकारी नींद से जागें और पुलिस को प्रभावी बनाने के कदम उठाएं।
उच्च न्यायालय ने इस मामले में सख्त टिप्पणी में कहा-‘‘लोगों को अपराधियों से अधिक पुलिस से लड़ना पड़ रहा है। राजनेता, अपराधी व पुलिस गठजोड़ आम लोगों को परेशान कर रहा है। पुलिस दुधारी हथियार जैसी खतरनाक हो गई है।’’
खनन पर रोक
उच्च न्यायालय ने पूरे प्रदेश में खनन पर रोक लगा दी थी। इस दौरान अदालत ने सरकार पर टिप्पणी करते हुए कहा कि तमान कानूनों के बावजूद उत्तर प्रदेश में अवैध खनन की खबरों से साफ है कि सरकार इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही है। खनन को लेकर प्रदेश में माफिया, अफसरों और ठेकेदारों का पूरा नेक्सस काम कर रहा है। उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद सरकार के विवादित खनन मंत्री गायत्री प्रजापति सहित पूरी सरकार इस वर्ष विपक्ष के निशाने पर रही।
जनप्रतिनिधियों व नौकरशाहों के बच्चे को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य
उच्च न्यायालय ने इस साल एक बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने उत्तर प्रदेश के सभी सरकारी अधिकारियों को अपने बच्चों को प्राथमिक सरकारी स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढ़ाने को कहा है। ऐसा नहीं करने वालों के खिलाफ कोर्ट ने कार्रवाई करने को भी निर्देश दिया है।
हाईकोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वह अन्य अधिकारियों से परामर्श कर यह सुनिश्चित करें कि सरकारी, अर्द्धसरकारी विभागों के सेवकों, स्थानीय निकायों के जन प्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बोर्ड द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करें। ऐसा न करने वालों के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई की जाए। कोर्ट ने मुख्य सचिव से छह माह बाद कार्यवाही की रिपोर्ट भी मांगी है।
कोर्ट ने कहा कि प्रदेश में तीन तरह की शिक्षा व्यवस्था है। अंग्रेजी कान्वेंट स्कूल, मध्य वर्ग के प्राइवेट स्कूल और उ.प्र. बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित सरकारी स्कूल। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए अनिवार्य न करने से इन स्कूलों की दुर्दशा हुई है। इनमें न योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधा। बड़े लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से जब तक ऐसे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तब तक इनकी दशा में सुधार नहीं होगा। अदालत का यह आदेश प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाता है।