अक्षय तृतीया सुख समृद्धि से जुड़ा पर्व है। चूंकि सोना समृद्धि का प्रतीक है और समृद्धि कभी क्षय न हो इसलिए लोग अक्षय तृतीया को सोना खरीदते हैं तथा अक्षय तृतीया को वैभव लक्ष्मी की श्री विष्णु के साथ पूजा की जाती है।
धन के देवता माने जाने वाले कुबेर की पूजा भी अक्षय तृतीया के दिन की जाती है। इस दिन भगवान शिव पार्वती तथा गणेश भगवान की भी पूजा की जाती है।
देवी महालक्ष्मी को धन और समृद्धि की देवी कहा जाता है और अक्षय तृतीया के दिन इनकी पूजा कर आशीर्वाद लेने का सबसे शुभ दिन है। अक्षय तृतीया के दिन लोग महालक्ष्मी के मंदिर जाते हैं उनके दर्शन करने के लिए। जिससे उनपर उनकी कृपा बनी रहे।
इसीलिए आज हम महालक्ष्मी के प्रसिद्ध मंदिर की बात करने जा रहें हैं। यह महालक्ष्मी मंदिर महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है। बताया जाता है कि महालक्ष्मी का यह मंदिर 1800 साल पुराना है और इस मंदिर में आदि गुरु शंकराचार्य ने देवी महालक्ष्मी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की थी। यही कारण है कि अक्षय तृतीया के दिन कई श्रद्धालु दूर दूर से यहांं दर्शन करने आते हैं।
कोल्हापुर महालक्ष्मी
कहानी इस मंदिर को लेकर ऐतिहासिक मान्यता यह है कि इस मंदिर में देवी महालक्ष्मी को ‘अम्बा बाई’ के नाम से पूजा जाता है। कोल्हापुर देवी महालक्ष्मी की कहानी कुछ इस तरह है कि एक बार ऋषि भृगु के मन में शंका उत्पन हुई कि त्रिमूर्ती के बीच में कौन सबसे श्रेष्ठ है। इसे जाने के लिए पहले वे ब्रह्मा के पास गए और बुरी तरह उनसे बात की। जिससे ब्रह्मा को क्रोध आ गया। इससे ऋषि भृगु को यह ज्ञात हुआ कि ब्रह्मा अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर सकते अतः उन्हें श्राप दिया कि उनकी पूजा किसी भी मंदिर में नहीं होगी। इसके बाद वे शिव जी के पास गए लेकिन नंदी ने उन्हें प्रवेश द्वार पर ही यह कह कर रोक दिया कि शिव और देवी पार्वती दोनों एकान्त में हैं। इस पर ऋषि भृगु क्रोधित हुए और शिव जी को श्राप दिया कि उनकी पूजा लिंग के रूप में होगी।
इसके बाद वे विष्णु जी के पास गए और देखा कि भगवान विष्णु अपने सर्प पर सो रहे थे और देवी महालक्ष्मी उनके पैरों की मालिश कर रहीं थी। यह देख ऋषि भृगु क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु छाती पर मारा। इससे भगवान विष्णु जाग गए और ऋषि भृगु से माफी मांगी और कहा कि कहीं उन्हें पैरो में चोट तो नहीं लग गयी। यह सुन कर ऋषि भृगु वहं से भगवान विष्णु की प्रशंसा करते हुए वापस चले गए।
लेकिन ऋषि भृगु के इस व्यवहार को देख कर देवी महालक्ष्मी क्रोधित हो गयी और उन्हों ने भगवान् विष्णु से उन्हें दंडित करने को कहा। लेकिन भगवान विष्णु इसके लिए राज़ी नहीं हुए। भगवान विष्णु के बात ना मानने पर देवी लक्ष्मी ने वैकुंठ त्याग दिया और कोल्हापुर शहर चली गयी। वहाँ उन्होंने तपस्या की जिससे भगवान विष्णु ने भगवान वेंकटचलपति रूप में अवतार लिया। इसके बाद उन्होंने देवी पद्मावती के रूप में देवी लक्ष्मी को शांत किया और उनके साथ विवाह किया।