इस जीवन का कर्मो से नाता होता है। प्राणी जीवन से मृत्यु तक कर्म ही करता है। यह कर्म ही भाग्य का निर्माण करता है। इसलिए व्यक्ति अपने भाग्य का विधाता स्वयं ही होता है क्योंकि उसके द्वारा किए गए कर्म ही उसके भाग्य की रेखाओ का निर्माण करते हैं।
कई बार कुछ लोगों को इस बात की गलतफहमी हो जाती है कि इन सब के भाग्य का निर्माण मैं ही करता हूं। इस बात के शिकार राजा, मंत्री, शासक, प्रशासक सभी विद्याओं के जानकार व अनेक देवरो के मुख्य उपासक आदि होते हैं। ये सभी तो मात्र एक परमात्मा के अस्त्र हैं जिनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है।
एक राज्य मे एक राजा को यह गलतफहमी हो जाती है कि इन सब का भाग्य मैं ही बनाता हूं।उसके सात लड़कियां होती है। एक दिन वह सभी से पूछता है कि तुम बताओ किस के भाग्य के सहारे चलती हो। उनमें से छह लडकियों ने कहा कि पिताजी हम आपके भाग्य के सहारे चलते हैं लेकिन सबसे छोटी लड़की ने कहा नहीं मैं खुद अपने ही भाग्य के सहारे चलती हूं।
कुछ दिन बाद राजा ने छह लडकियों की शादी अच्छी अच्छी जगह करवा दी तथा सातवीं के लिए कहा कि कल प्रातःकाल मे जब राज्य के दरवाजे खुले उस समय जो भी दिख जाए उसके साथ ही इसकी शादी कर दी जाएगी।
दूसरे दिन प्रातःकाल दरवाजा खुला तो एक मोर नजर आया। राजा ने मोर से उस लड़की की शादी कर दी तथा राज्य से बाहर विदा कर दिया।
लड़की मोर को गोद मे उठाकर जंगल की ओर चली गई ओर सन्ध्या के समय रात्रि विश्राम के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गई। रात को अचानक तूफान बरसात आई। मोर उडकर पेड पर बैठ गया। इतने मे बिजली चमकी ओर गिरी तथा मोर पेड से नीचे गिर कर मर गया।
लड़की अपने पति मोर को उठा कर प्रातःकाल नदी की ओर ले गई। लड़की ने सोचा अब मुझे भी अपनी जीवन लीला का अंत कर देना चाहिए। वह जैसे ही नदी मे कूदने लगी वैसे ही पीछे से एक संत ने उसे रोका और कहा बेटा यह मरा नहीं है इसकी मोर योनि समाप्त हो गई है, थोड़ी देर बाद यह एक राजा बन जाएगा। इतने में परमात्मा की कृपा से वह मृत मोर नौजवान राजा बन गया उसके सिर पर जन्मजात मोर की कंलगी थी।
लड़की को एकदम आश्चर्य हुआ कि यह मोर से पुरूष कैसे बन गया तब उस संत ने कहा कि बेटा इसको मोर पक्षी बनने का श्राप मिला था वास्तव में यह राजा मोर ध्वज है। लड़की के पिता को जब यह बात मालूम पडी तो उसने अपनी बेटी से माफी मांगी ओर कहा कि बेटी तू ने सत्य ही कहा कि मै अपने भाग्य के सहारे ही चलती हूं।
तब राजा को समझ मे आ गया कि कोई मानव दूसरे मानव का भाग्य विधाता नहीं होता है वरन परमात्मा ही सभी को जन्मजात भाग्य उपहार में देता है और व्यक्ति स्वयं कर्म कर अपने भाग्य को लिखता है। यह प्राचीन कथा श्रद्धा और आस्था पर टिकी हुई है तथा संकेत देती है कि मानव कर्म करे।
सौजन्य : भंवरलाल