बसपा सुप्रीमों मायावती की बिखरती सियासत के बारे में लिखना चाहता था, लेकिन न जाने क्यों जहन में गीतों के ‘पर्यायवाची’ गोपाल दास नीरज जी का अश्क नजरों के सामने घूमने लगा। सोचा मायवती पर लिखने से पहले उनका भी थोड़ा सा प्रसंग छेड़ा जाये।
नीरज जी को याद करने की वजह थी, अक्सर गुनगुनाया जाने वाला एक पुराना गीत,‘ कारवाॅ गुजर गया…….।’, यह गीत जब भी कानों में पड़ता है, अंतरात्मा को झंझोर देता है। पद्म श्री और पद्म भूषण जैसे अलंकरणों से अलंकृत गोपालदास ‘नीरज’ ने यह गीत काफी विषम परिस्थितियांें में लिखा था। परंतु उनके प्रशंसकों ने इसे सदाबहार बन गया। गीत तो लम्बा है, लेकिन इसका सार अंतरे से समझा जा सकता है, गीत के बोल थे।
‘स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे!’
बसपा सुप्रीमों मायावती की मौजूदा सियासी दुर्दशा पर यूपी और खासकर लखनऊ की शान गोपाल दास नीरज का उक्त गीत बिल्कुल फिट बैठता है। चुनावी मौसम में बसपा के पुराने ‘मीत’ (स्वामी प्रसाद मौर्या, जुगल किशोर, बाबू सिंह कुशवाह, राजबहादुर, दद्दू प्रसाद, दीनानाथ भाष्कर आदि नेता) शूल की तरह बहनजी को चुभ रहे हैं। बहनजी के कारवें से एक-एक कर तमाम बड़े नेता अलग होते जा रहे हैं और अपने पीछे छोड़ जाते हैं सिर्फ ‘गुबार’।
बसपा में अब मान्यवर कांशीराम के साथ खड़े नेताओं की संख्या उंगली पर गिने जाने लायक रह गई है। इतना ही नहीं कांशीराम की मौत के बाद उनके परिवार के सदस्यों को भी बसपा सुप्रीमों ने कोई महत्व नहीं दिया, जिससे वह भी नाराज हो गये। विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य से पहले भी बसपा छोड़ने वाले चेहरोें की लंबी सूची रही थी,जो बसपा के संस्थापक कांशीराम के पुराने व भरोसे के साथियों में गिने जाते थे।
मौर्या के बाद बसपा का दामन छोडने वाले आरके चैधरी मान्यवर कांशीराम के समय के नेता थे।पार्टी छोड़ते ही बसपा महासचिव आरके चैधरी ने मायावती पर धन उगाही का आरोप लगाते हुए कहा,”मायावती ने बसपा को राजनीतिक दल नहीं बल्कि रीयल इस्टेट बना कर रख दिया है। वह चाटुकारों के कहने पर फैसला लेती हैं। मिशनरी कार्यकर्ता पार्टी में किनारे लगा दिए गए हैं। मायावती को धन उगाही का शौक है।”
आरके चैधरी 2013 अप्रैल में 12 साल बाद बसपा में वापस आए थे। उस समय पहले उनकी पार्टी का बसपा में विलय कराया गया था और बाद में उन्हें तीन मंडलों की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसके बाद उसमें से एक मंडल उनके पास से हटा लिया गया। उनसे कहा गया कि अब वह मिर्जापुर जाकर काम देखें। उन्हें लखनऊ आने की जरूरत नहीं है। बसपा से नाता तोड़ने वाले आरके चैधरी न केवल पासी नेता हैं, बल्कि बसपा की स्थापना के पहले से कांशीराम के साथ दलित समाज को जागरूक करने के अभियान के हिस्सेदार रहे हैं।
वह बसपा के संस्थापक सदस्यों में हैं। सपा-बसपा की पहली साझा सरकार में वह मंत्री भी बने थे, लेकिन, बाद में बसपा में मायावती का प्रभाव बढ़ने के साथ उनकी दूरियां बढ़ती गईं। 2001 में उन्हें बसपा से बाहर का रास्ता दिखाया गया। इस पर आरके चैधरी ने राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बना ली। लगातार दो चुनाव लखनऊ की मोहनलालगंज विधानसभा सीट से अपनी पार्टी के निशान पर जीते। बाद में उनकी पार्टी का बसपा में विलय करा दिया गया।
स्वामी प्रसाद मौर्या और आरके चैधरी से पहले पिछले दो दशक में कई ऐसे नेता बसपा को अलविदा कह चुके हैं जो कभी कांशीराम के साथ साइकिलों से गांव-गांव घूमकर दलितों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना फैलाने का काम किया करते थे, लेकिन मान्यवर कांशीराम के बाद जिस तेजी से बसपा में मायावती का वर्चस्व बढ़ा, उसी तेजी से कांशीराम के पुराने साथी और पार्टी के संस्थापक संगठन से बाहर होते गए।
मायावती को शायद स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चैधरी के इरादों की भनक नहीं लग पाई, वर्ना वो उन्हें पार्टी छोड़ने का मौका नहीं देतीं। वो मौर्य और चोधरी को भी उन पचास से ज्यादा बसपा नेताओं की तरह ही बाहर का रास्ता दिखा देतीं, जिन्होंने किसी भी मुद्दे पर उनसे मतभेद जाहिर किए। कांशीराम के समय के अधिकतर बसपा नेता आज या तो बसपा से बाहर किए जा चुके हैं. कुछ हैं जो बाहर जाकर वापस आए हैं. लेकिन उनकी पार्टी में अभी भी दोयम दर्जे की हैसियत है।
नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे कांशीराम के इक्का-दुक्का साथी अगर अभी भी बसपा में बने हुए हैं, तो उसकी वजह उनका सिर्फ आज्ञाकारी कार्यकर्ता बने रहना है। अधिकतर को पार्टी से निकाले जाने की वजह यही थी कि वे खुद को नेता समझने लगे थे।
बसपा छोड़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या हों या फिर अन्य नेतागण अधिकांश की यही सोच है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की पैसों की हवस बढ़ गई है। इसी लिये दलितों मे मसीहा डा0 साहब भीमराव अंबेडकर और दलित चिंतक मान्यवर कांशीराम के सिद्धांतों को उन्होंने हासिये पर डाल दिया है। दलितोें व पिछड़ों को इंसाफ दिलाने की बजाये वह दौलतमंदों को फायदा पहुंचाने में जुट गई है।
इसी के चलते दलितों वोटों का सौदा तक करने से मायावती को परहेज नहीं रह गया हैं। मायावती पर आरोप यह भी हैं कि जहां कांशीराम ने समानुपातिक भागीदारी को ध्यान में रखकर नारा दिया थ,‘ जिसकी जितनी सख्ंया भारी, उसकी उतनी भागीदारी।’ मायावती ने इस नारे को उलट दिया,और वह कहने लगीं,‘ जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी भागीदारी।‘
पुराने बसपाई कहते हैं माया ने दलित वोटों का सौदा करने के लिए ही नये नारे को साकार किया था। यह सर्वसंपन्न लोगों को लाभाविन्त करने कि नीति थी। मायावती कों बसपा के संस्थापक कांशीराम का ‘एक वोट -एक नोट‘ का नारा भी याद नहीं रहा।इसकी बजाये एक अघोषित नारे ने जन्म ले लिया,‘जितनी थैली भारी-उसकी उतनी भागीदारी।’
खैर, किसी भी नेता पर आरोप तो लगते ही रहते हैं, बात मौर्या से पहले बसपा छोड़ने वाले नेताओं की कि जाये तो कांशीराम के पुराने साथी दद्दू प्रसाद का नाम प्रमुख है। स्थापना के समय से बसपा में थे। लगभग ढाई साल पहले वे पार्टी छोड़ गए थे। वर्तमान में वह बहुजन मुक्ति पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैै।
दद्दू कहते हैै, डा0 अंबेडकर और कांशीराम ने धन आधारित लोकतंत्र में बदलने का काम किया था। इससे दलितोें व पिछड़ों को सम्मान दिलाने वाला एक खूबसूरत बगीच तैयार हुआ था। मायावती अब उस बगीचे को व्यापारियों को बेचकर दलित, पिछड़ों व शोषितों के वोट ही बेच रही, बल्कि इस समाज की बहू-बेटियों की इज्जत बेच रही है। मायावती से दलितों के उद्धार की उम्मीद करना ही बेकार है।
ठीक इसी प्रकार से कभी अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल हर मंच पर कांशीराम के बगलगीर हुआ करते थे, पर मायावती के उभार के बाद बदले हालात में उन्हें भी बसपा को अलविदा कहना पड़ गया। बाद में उन्होंने अपना दल का गठन कर लिया था। इसी तरह जंग बहादुर पटेल भी कांशीराम के करीबियों में हुआ करते थे, लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर उन्हें भी बसपा छोड़नी पड़ गई।
बरखूराम वर्मा का भी नाम इसी लिस्ट के नेताओं में था। मायावती ने उन्हें पार्टी से बर्खास्त कर दिया था। बात अन्य नामों की कि जाये तो बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक आरके चैधरी बसपा के गठन के बाद पार्टी के अग्रणी नेताओं में शामिल रहे।
प्रदेश में बहनजी की सरकार बनी तो वह परिवहन मंत्री बने, लेकिन 2001 में मायावती से अनबन के चलते पार्टी से बाहर हो गए। 2004 में राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी का गठन किया। 2012 में खुद विधानसभा चुनाव नहीं जीत सके। वर्ष 2013 में उनकी बसपा में वापसी हुई थी और तीन वर्ष के भीतर फिर वह बसपा के लिये बेगाने हो गये।
बसपा के प्रारम्भिक दिनों का हिस्सा रहे दिनानाथ भास्कर सपा-बीएसपी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे थे। माया के खिलाफ बगावत कर 1996 में बीएसपी छोड़कर सपा का दामन थाम लिया था। उस समय भास्कर ने मायावती पर कई आरोप लगाए थे, लेकिन 2009 में वह फिर बीएसपी में शामिल हो गए थे। इस समय बीजेपी में हैं।
उनकी माने तो मायावती को यह आशंका सताती रहती है कि कहीं पुराने लोग मिलकर उन्हें कमजोर न कर दे। इसलिए वे किसी को स्थापित नहीं होने देती है। जैसे ही कोई मजबूत होता दिखता हैै।वह उसे पार्टी से निकाल देती है। भास्कर के अनुसार सिर्फ वह ही नहीं, कई ऐसे लोग है, जिन्होने बसपा के जरिये सामाजिक परिवर्तन का सपना देखा था, पर साहब (कांशीराम) की मृत्यु के बाद मायावती ने मिशन को मनी में तब्दील कर दिया।
मिशन वाले अब बसपा में नहीं रहे सकते। अभी और कोई लोग पार्टी छोड़ंेगे। मायावती के पास बस रेट बचा है, वोट नहीें। इसी प्रकार राम लखन वर्मा, भगवत पाल, दयाराम पाल को भी माया के तानाशाही रवैये के चलते बसपा से बाहर जाना पड़ा था।
टांडा के डा0 मसूद अहमद भी कांशीराम के ही साथी थे। 1985 से 1993 तक बीएसपी के पूर्वी यूपी के प्रभारी रहे व सपा-बीएसपी की साझा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे। इसी दौरान बीएसपी से उनका मतभेद हुआ और उन्हें बाहर कर दिया गया। मसूद ने कुछ दिनों तक अपनी पार्टी चलाई। फिर सपा व कांग्रेस में गए लेकिन उसके बाद से कोई चुनाव नहीं जीते। इस समय मसूद राष्ट्रीय लोकदल में हैं।
वर्ष 1973 में वामसेफ के माध्यम से राज बहादुर, मान्यवर कांशीराम के साथ जुड़े थे। 1993 में सपा-बसपा सरकार में समाज कल्याण मंत्री बने। बाद में राज बहादुर बागी हो गए और उन्होंने बीएसपी (रा) के नाम से पार्टी बना ली। कुछ समय बाद वह सपा और फिर कांग्रेस में चले गए। इस समय वह कांग्रेस में हैं पर बीएसपी छोड़ने के बाद वह कोई चुनाव नहीं जीत पाए।
बसपा की निवर्तमान सरकार में माया के सबसे खास सिपहसालारों में बाबू सिंह कुशवाह हुआ करते थे। एनआरएचम घोटाले में जेल जाने के बाद मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद कुशवाह ने जन अधिकार मंच बनाया। पत्नी सपा से लोकसभा चुनाव लड़ी, लेकिन जीत नहीं सकी। कुशवाहा इस समय जमानत पर बाहर हैं, लेकिन राजनीतिक पूछ पहले सी नहीं बन सकी है और अपना ही मंच बनाकर सियासत कर रहे हैं।
कांग्रेस सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री रहे अखिलेश दास पार्टी छोड़ने के बाद बसपा में शामिल हुए थे। बीएसपी ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया था। राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद बसपा ने दुबारा उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा तो अखिलेश दास पार्टी से बाहर हो गए। तमाम कोशिशों के बाद भी राज्यसभा की अगली पारी उन्हें नहीं मिल सकी है।
बसपा के महासचिव रहे जुगुल किशोर को बीएसपी ने राज्यसभा भी भेजा था। पिछले चुनावों तक टिकट वितरण से लेकर कई संगठनात्मक निर्णयों में अहम भागीदारी रही। बगावत कर बीजेपी में शामिल हो गए हैं। मायावती पर टिकट बेचने सहित कई आरोप लगाए। हालांकि रुतबा व ओहदा दोनों ही अब तक हासिल नहीं हो सका हैं।
बसपा के संस्थापक सदस्यों को ही नहीं कांशीराम के परिवार के लोगों को बसपा से बाहर होना पड़ा। कांशीराम की बीमारी के समय मायावती की उनके परिवार वालों से ठन गई थी। मामला न्यायालय तक गया। कांशीराम के छोटे भाई दरबारा सिंह मायावती पर कंाशीराम के मिशन से भटकने का आरोप लगाते हुए बसपा के पुराने लोगों को जोड़ने का अभियान चला रहे है।गत दिनों वहलखनऊ आए थे।
उन्होंने यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव में सक्रियता से काम करने का फैसला किया है।वे कहते है, मायावती का मिशन दलितों व शोषितों को सम्मान और अधिकार दिलाना नहीं, बल्कि इनकी ताकत का दुरूपयोग करके सत्ता की सौदेबाजी करना रह गया है।
बसपा को छोड़कर किसने क्या पाया इस पर तो चर्चा होती ही रहती है, लेकिन अतीत से हटकर वर्तमान पर नजर दौड़ाई जाये तो राजनीतिक पंडितों का यही कहना है कि जिन दिग्गजों ने बसपा छोड़ थी वह 1990 से 2000 के दशक के नेता थे। यही वह दौर था जब बसपा शिखर की ओर अग्रसर थी। इसलिए चाहे किसी भी नेता का जितना भी दलित राजनीतिक आधार रहा हो, वह माया के औरा के आगे नहीं टिक सका,लेकिन अब सूरत-ए-हाल बदल चुका है। अगर ऐसा न होता तो बसपा सुप्रीमों मायावती को मौर्या के लिये दो-दो बार प्रेस कंाफ्र्रेस नहीं करनी पड़ती। पिछले चार वर्षो में बीएसपी के लिए हालात बहुत कुछ बदले हैं।
विधानसभा से लोकसभा तक की हार ने माया के जिताऊ ही नहींे दलित वोट बैंक की मजबूती पर सवाल खड़े कर दिये हैं हैं। ऐसे में मौर्य के जाने से वोटों की जातीय गणित भले कम प्रभावित हो, लेकिन सियासी हौसले पर तो गहरा प्रभाव पड़ेगा ही।लब्बोलुआब यह है कि जिस तरह जंगल में एक ही शेर रहता है,उसी तरह से बसपा में एक ही नेता।अगर और कोई नेतागिरी करना चाहता है तो उसके लिये बाहर के रास्ते खोल दिये जाते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या भी अपने आप को नेता समझने लगे थे,देखना यह है कि वह कितने सही और कितने गलत थे।
: संजय सक्सेना