विजयदशमी पर स्वयंसेवकों को संबोधन
नागपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद की घटनाओं और भारत में असंतोष भड़का कर समाज में कट्टरपन एवं टकराव पैदा करने के प्रयासों के प्रति देशवासियों को आगाह करते हुए लोगों को देश के तान बाने को छिन्न-भिन्न करने वाले षड्यंत्रों का सजगता, एकता एवं दृढ़ता से मुकाबला करने का आह्वान किया है।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व प्रमुख पद्म भूषण डाॅ. के राधाकृष्णन शामिल हुए। इससे पहले स्वयंसेवकों का भव्य पथसंचलन हुआ और सरसंघचालक एवं डाॅ. राधाकृष्णन ने संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित की।
सरसंघचालक ने अपने उदबोधन में मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा कि डीप स्टेट, वोकिज़म, कल्चरल मार्क्सिस्ट, आजकल चर्चा में हैं। वास्तव में ये सभी सांस्कृतिक परम्पराओं के घोषित शत्रु हैं। सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, अच्छा माना जाता है, उसका समूल नाश करना इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है।
समाज में मन बनाने वाले तंत्रों एवं संस्थानों को अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार, तथा आस्था को नष्ट करना, यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण होता है। असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध, उग्र बनाया जाता है। समाज में टकराव की सम्भावनाओं को ढूंढ कर प्रत्यक्ष टकराव खड़े किए जाते हैं। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा एवं द्वेष को उग्र बना कर अराजकता और भय का वातावरण खड़ा किया जाता है। इससे उस देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है।
उन्होंने कहा कि देश में विनाकारण कट्टरपन को उकसाने वाली घटनाओं में भी अचानक वृद्धि हुई दिख रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परन्तु उसको व्यक्त करने के और उनका विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होते हैं। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना, समाज के एकाध विशिष्ट वर्ग पर आक्रमण करना, विना कारण हिंसा पर उतारू होना, भय पैदा करने का प्रयास करना, यह तो गुंडागर्दी है।
इसको उकसाने के प्रयास होते हैं अथवा योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है ऐसे आचरण को डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने अराजकता का व्याकरण कहा है। अभी बीत गए गणेशोत्सवों के समय श्रीगणपति विसर्जन की शोभायात्राओं पर अकारण पथराव की तथा तदुपरान्त बनी तनावपूर्ण परिस्थिति की घटनाएं उसी व्याकरण का उदाहरण है।
ऐसी घटनाओं को होने नहीं देना, वो होती हैं तो तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को त्वरित दण्डित करना यह प्रशासन का काम है। परन्तु उनके पहुँचने तक तो समाज को ही अपने तथा अपनों के प्राणों और सम्पत्ति की रक्षा करनी पड़ती है। इसलिए समाज ने भी सदैव पूर्ण सतर्क एवं सन्नद्ध रहने की तथा इन कुप्रवृत्तियों को, उन्हें प्रश्रय देने वालों को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है।
डॉ. भागवत ने कहा कि बहुदलीय प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में सत्ता प्राप्त करने हेतु दलों की स्पर्धा चलती है। अगर समाज में विद्यमान छोटे स्वार्थ, परस्पर सदभावना अथवा राष्ट्र की एकता और अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण हो गए अथवा दलों की स्पर्धा में समाज की सदभावना एवं राष्ट्र का गौरव एवं एकात्मता गौण माने गए, तो ऐसी दलीय राजनीति में एक पक्ष की सहायता में खड़े होकर वैकल्पिक राजनीति के नाम पर अपनी विभाजनकारी नीति को आगे बढ़ाना इनकी कार्यपद्धति है।
यह कपोल-कल्पित कहानी नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों पर बीती हुई वास्तविकता है। पाश्चात्य जगत के प्रगत देशों में इस मंत्रविप्लव के परिणाम स्वरूप जीवन की स्थिरता, शांति व मांगल्य संकट में पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तथाकथित अरब स्प्रिंग से लेकर अभी अभी पड़ोस के बांग्लादेश में जो घटित हुआ वहां तक इस पद्धति को काम करते हुए हमने देखा है। भारत के चारों ओर के विशेषतः सीमावर्ती तथा जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में इसी प्रकार के कुप्रयासों को हम देख रहे हैं।
उन्होंने कहा कि अभी अभी बांग्लादेश में जो हिंसक तख्तापलट हुआ उसके तात्कालिक एवं स्थानीय कारण उस घटनाक्रम का एक पहलू है। परन्तु वहां रहने वाले हिंदु समाज पर अकारण नृशंस अत्याचारों की परंपरा को फिर से दोहराया गया। उन अत्याचारों के विरोध में वहां का हिंदु समाज इस बार संगठित होकर स्वयं के बचाव में घर के बाहर आया इसलिए थोड़ा बचाव हुआ। परन्तु यह अत्याचारी कट्टरपंथी स्वभाव जब तक वहां विद्यमान है तब तक वहां के हिंदुओं सहित सभी अल्पसंख्यक समुदायों के सिर पर खतरे की तलवार लटकी रहेगी।
इसीलिए उस देश से भारत में होने वाली अवैध घुसपैठ एवं उसके कारण उत्पन्न जनसंख्या असंतुलन देश में सामान्य जनों में भी गंभीर चिंता का विषय बना है। देश में आपसी सदभाव व देश की सुरक्षा पर भी इस अवैध घुसपैठ के कारण प्रश्न चिन्ह लगते है। उदारता, मानवता, तथा सदभावना के पक्षधर सभी के, विशेष कर भारत सरकार तथा विश्वभर के हिंदुओं के सहायता की बांग्लादेश में अल्पसंख्यक बने हिंदु समाज को आवश्यकता रहेगी।
सरसंघचालक ने कहा कि असंगठित रहना और दुर्बल रहना यह दुष्टों के द्वारा अत्याचारों को निमंत्रण देना है यह पाठ भी विश्व भर के हिंदु समाज को ग्रहण करना चाहिए। परन्तु बात यहां रुकती नहीं। अब वहां भारत से बचने के लिए पाकिस्तान से मिलने की बात हो रही है। ऐसे विमर्श खड़े कर कौन से देश भारत पर दबाव बनाना चाहते हैं इसको बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके उपाय करना शासन का विषय है। परंतु समाज के लिए सर्वाधिक चिन्ता की बात यह है कि समाज में विद्यमान भद्रता व संस्कार को नष्ट-भ्रष्ट करने के, विविधता को अलगाव में बदलने के, समस्याओं से पीड़ित समूहों में व्यवस्था के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने के तथा असन्तोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास बढ़े हैं।
उन्होंने कहा कि रामराज्य सदृश ऐसा वातावरण निर्माण होने के लिए प्रजा की गुणवत्ता, चारित्र्य तथा स्वधर्म पर दृढ़ता जैसी होना अनिवार्य है, वैसा संस्कार व दायित्वबोध सब में उत्पन्न करने वाला सत्संग अभियान परमपूज्य श्रीश्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर के द्वारा प्रवर्तित किया गया था। आज के बांग्लादेश तथा उस समय के उत्तर बंगाल के पाबना में जन्मे श्रीश्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर जी होमियोपैथी चिकित्सक थे तथा स्वयं की माता जी के द्वारा ही अध्यात्म साधना में दीक्षित थे। व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर उनके सम्पर्क में आने वाले लोगों में सहज रूप से चरित्र विकास तथा सेवा भावना के विकास की प्रक्रिया ही सत्संग बनी।
2024 से 2025 सत्संग के मुख्यालय देवघर (झारखंड) में उस कर्मधारा की भी शताब्दी मनने वाली है। सेवा, संस्कार तथा विकास के अनेक उपक्रमों को लेकर यह अभियान आगे बढ़ रहा है।
सरसंघचालक ने महिलाओं के प्रति अपराधों पर चिंता जताते हुए कहा कि संस्कार क्षय का ही यह परिणाम है कि मातृवत् परदारेषु के आचरण की मान्यता वाले हमारे देश में बलात्कार जैसी घटनाओं का मातृशक्ति को कई जगह सामना करना पड़ रहा है। कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में घटी घटना सारे समाज को कलंकित करने वाली लज्जाजनक घटनाओं में एक है। उसके निषेध तथा त्वरित व संवेदनशील कार्यवाही की मांग को लेकर चिकित्सक बंधुओं के साथ सारा समाज तो खड़ा हुआ। परन्तु ऐसा जघन्य पाप घटने पर भी, कुछ लोगों के द्वारा जिस प्रकार अपराधियों को संरक्षण देने के घृणास्पद प्रयास हुए, यह सब अपराध, राजनीति तथा अपसंस्कृति का गठबंधन हमें किस तरह बिगाड़ रहा है, यह दिखाता है।
उन्होंने कहा कि समाज की स्वस्थ एवं सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सदभाव। कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है। समाज के सभी वर्गों एवं स्तरों में व्यक्ति की व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए। यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी। परस्परों के पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता होकर वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनने चाहिए। सार्वजनिक उपयोग के और श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, जलस्रोत, स्मशान आदि में समाज के सभी वर्गों को सहभागी होने का वातावरण चाहिए। परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए। जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टी रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए।
डॉ. भागवत ने कहा कि परिस्थिति का उपरोक्त वर्णन यह डरने, डराने या लड़ाने के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति विद्यमान है यह हम सब अनुभव कर रहे हैं साथ में इस देश को एकात्म, सुख शान्तिमय समृद्ध एवं बलसंपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है, सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिन्दू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। इसलिए समाज की एक विशिष्ठ प्रकार की स्थिति, सजगता तथा एक विशिष्ट दिशा में मिलकर प्रयासों की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, प्रशासन, शासन आदि सब सहाय्यक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है, बाद में रोग उसको घेरते हैं। दुर्बलों की परवाह देव भी नहीं करते ऐसा एक सुभाषित प्रसिद्ध है।
अश्वं नैव गजं नैव, व्याघ्रं नैव च नैव च।
अजापुत्रं बलिं दद्यात्, देवो दुर्बल घातक:।।
इसीलिए शताब्दी वर्ष के पूरे होने के पश्चात समाज में कुछ विषय लेकर सभी सज्जनों को सक्रिय करने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं।
सरसंघचालक ने पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि चारों ओर के वातावरण में एक विश्वव्यापी समस्या जिसका अनुभव हाल के वर्षों में अपने देश में भी हो रहा है वह है पर्यावरण की दु:स्थिति। ऋतुचक्र अनियमित एवं उग्र बन गया है। उपभोगवादी तथा जड़वादी अधूरे वैचारिक आधार पर चली मानव की तथाकथित विकास यात्रा मानवों सहित सम्पूर्ण सृष्टि की विनाश यात्रा लगभग बन गई है। अपने भारतवर्ष की परम्परा से प्राप्त सम्पूर्ण, समग्र व एकात्म दृष्टी के आधार पर हमने अपने विकास पथ को बनाना चाहिए था परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। अभी इस प्रकार का विचार थोड़ा थोड़ा सुनाई दे रहा है परन्तु उपरी तौर पर कुछ बातें स्वीकार हुईं हैं, कुछ बातों का परिवर्तन हुआ है। इससे अधिक काम नहीं हुआ है।
उन्होंने कहा कि विकास के बहाने विनाश की ओर ले जाने वाले अधूरे विकास पथ के अन्धानुसरण के परिणाम हम भी भुगत रहे हैं। गर्मी की ऋतु झुलसा देती है, वर्षा बहा कर ले जाती है और शीत ऋतु जीवन को जड़वत् जमा देती है। ऋतुओं की यह विक्षिप्त तीव्रता हम अनुभव कर रहे हैं। जंगल काटने से हरियाली नष्ट हो गई, नदियां सूख गईं, रसायनों ने हमारे अन्न जल वायु एवं धरती तक को विषाक्त कर दिया, पर्वत ढहने लगे, भूमी फटने लगी, यह सारे अनुभव पिछले कुछ वर्षों में देश भर में हम अनुभव कर रहे हैं।
अपने वैचारिक आधार पर, इस सारे नुकसान को पूरा कर हमको धारणाक्षम, समग्र व एकात्म विकास देने वाला हमारा पथ हम निर्माण करें इसका कोई पर्याय नहीं है। सम्पूर्ण देश में इसकी समान वैचारिक भूमिका बने व देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए क्रियान्वयन का विकेन्द्रित विचार हों तब यह संभव है। लेकिन हम सामान्य लोग अपने घर से तीन छोटी छोटी सरल बातों का आचरण करते हुए प्रारम्भ कर सकते हैं। पहली बात है जल का न्यूनतम आवश्यक उपयोग तथा वर्षा जल का संधारण।
दूसरी बात है प्लास्टिक वस्तुओं विशेष रूप से एक बार उपयोग में आने वाली प्लास्टिक का उपयोग नहीं करना। तीसरी बात अपने घर से लेकर बाहर भी हरियाली बढे, वृक्ष लगें, अपने जंगलों के और परम्परा से लगाए जाने वाले वृक्ष सर्वत्र खड़े हों इसकी चिंता करना। पर्यावरण के सम्बन्ध में नीतिगत प्रश्नों का समाधान होने के लिए समय लगेगा, परन्तु यह सहज कृति अपने घर से हम त्वरित प्रारम्भ कर सकते हैं।