भारत की प्रथम बालिक शिक्षा की सजग प्रहरी सावित्री बाई फूले

प्रो(डॉ) मनोज कुमार बहरवाल प्राचार्य

अजमेर। सावित्री बाई फूले का जन्म सतारा के नायगांव में 1831 में खन्दोजी नैवैसे और लक्ष्मी बाई के घर पर हुआ था। सावित्री बाई मात्र तीसरी कक्षा तक ही शिक्षित थीं। सावित्री बाई में बाल्यकाल से ही दिव्यता के गुण विद्यमान थे। वे बाल्यकाल से ही बहुत जिज्ञासु और महत्वकांक्षा से भरी हुई थी।

आप समझ सकते हैं, हम यह बात 1831 की कर रहे हैं जिस समय शिक्षा और वह भी बालिका शिक्षा प्राप्त करना, आप अनुमान लगा सकते हैं कि सावित्री बाई के जनक शिक्षा को कितना महत्वपूर्ण मानते थे। वर्तमान के बुद्धिजीवियों के लिए सावित्री बाई एक बहुत बड़ी प्रेरणा स्त्रोत हैं। जब सावित्री बाई 9 वर्ष की हुईं उस समय 1840 में उनका ज्योतिबा फूले से बाल विवाह हुआ। विवाह के बाद सावित्री बाई अपने पति के साथ पूना चली गई। ऐसा तथ्य सामने आता है कि विवाह के समय उनके पास एक बहुमूल्य उपहार एक ईसाई धर्म प्रचारक द्वारा दी गई पुस्तक थी।

ज्योतिबा फूले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई को खेती–बाड़ी करते हुए ही शिक्षित किया। सावित्री बाई के साथ–साथ ज्योतिबा की चचेरी बहन सगुणा बाई शिरसागर भी काम–काज करते समय शिक्षा ग्रहण कर रही थीं। पति–पत्नी ने एक दूसरे की शैक्षणिक भावना को समझा और शिक्षा के क्षेत्र में सावित्री बाई ने खेती–बाड़ी करते हुए प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की।

इसके पश्चात् ज्योतिबा ने अपने मित्रों (सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर) के मार्ग निर्देशन में आगे का अध्ययन–अध्यापन जारी रखा। आपकी शैक्षणिक गम्भीरता को देखते हुए दो संस्थान (अहमदनगर में स्थित अमरीकी मिशनरी और पूना की एक सामान्य पाठशाला) में आपको शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए नामित किया गया।

अब सावित्री बाई ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर ली थी। इसके बाद एक सच्ची शिक्षिका के दायित्व निर्वहन का उन्होंने सक्रिय उदाहरण प्रस्तुत किया और वे स्वयं ही बिना किसी राजकीय सहायता से अपने ही मोहल्ले में पूना में सगुणा बाई शिरसागर के साथ मिलकर सम्पूर्ण भारत में बालिकाओं को पढ़ाने के लिए प्रथम पाठशाला का शुभारम्भ किया।

तमसो मां ज्योतिर्गमय का यह प्रथम सामाजिक और यथार्थ में पुनीत कार्य था। इसके बाद उनकी शैक्षणिक यात्रा को चार पैर लग गए और सावित्री बाई ने भिड़ेवाडा में एक ओर बालिका पाठशाला की स्थापना कर शुभारम्भ किया। इस पाठशाला में गणित, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान और पारम्परिक पश्चिमी पाठ्यक्रम आदि का अध्ययन–अध्यापन करवाया जाता था।

फूले दम्पती की इस सामाजिक और शैक्षणिक गति में अभूतपूर्व तेजी आई और 1851 के अन्त तक पूना में तीन और बालिका पाठशालाओं का सक्रिय और प्रभावी संचालन किया जा रहा था। इन तीनों बालिका पाठशालाओं में लगभग 150 से अधिक बालिकाओं का पंजीयन और नामांकन हो गया था। इनकी पाठ्यक्रम शैली तत्कालीन सरकारी शैलियों से भिन्न और श्रेष्ठ थी। सरकारी पाठशालाओं से अधिक श्रेष्ठ इन तीनों पाठशालाओं की अध्ययन शैली थी। एक और अन्य उपलब्धि वाला तथ्य यह है कि इन पाठशालाओं में बालिकाओं की संख्या का नामांकन अधिक था वहीँ सरकारी पाठशालाओं में कम। इन पाठशालाओं में बालकों की तुलना में बालिकाओं का नामांकन अधिकतम रहता था। यही है शिक्षा की गुणवत्ता।

अपनों से ही सामना और संघर्ष

ऐसा कहा जाता है कि उस समय का समाज बड़ा ही दकियानूसी और रुढ़िवादी था लेकिन वर्तमान का समाज अति बुद्धिवादी है। बालिका शिक्षा को लेकर अभी भी अनेकों समस्याएं हैं। बालिकाओं को अध्ययन–अध्यापन करवाना एक तरह से दैवीय प्रकोप माना जाता था। फूले दम्पती को अपने ही समाज के लोगों से और पूना के समाज के लोगों का विरोध झेलना पडा। सावित्री बाई जब अपने घर से पाठशाला जाती थी उस समय उन पर गोबर फेंका जाता था और उन्हें अपशब्द कहे जाते थे। उनके ऊपर पत्थर तक फेंके जाते थे। उनसे मौखिक दुर्व्यवहार किया जाता था, लेकिन सावित्री बाई भारत की पक्की मिटटी से बनी हुई थीं। वे बिल्कुल भी विचलित नहीं होती थीं।। समस्याओं का मनोवैज्ञानिक समाधान उनके पास था। इसी कारण वे एक अतिरिक्त साड़ी अपने थैले में रखकर ले जाती थीं और अपनी पहली साड़ी गन्दी होने पर पाठशाला जाकर दूसरी साफ–सुथरी साड़ी पहन लेती थीं। इसीलिए कहते हैं जीवन चलने का नाम।

लेकिन मेरा यह मानना है कि उस समय का समाज रुढ़िवादी था तो बालिकाओं को अध्ययन–अध्यापन के लिए रोकता था और यह मानता था कि मनुस्मृति के अनुसार अथवा ब्राहमणवाद के कारण बालिकाओं को अध्ययन–अध्यापन नहीं करवाना चाहिए। गैर तो गैर अपनों ने भी फूले दम्पती को नहीं छोड़ा। सामाजिक विरोध और सामाजिक जड़ता के कारण ज्योतिबा फूले के पिताजी ने 1839 में फूले दम्पती को घर से निष्काषित कर दिया। ज्योतिबा दम्पती को जब घर से निष्कासित किया उस समय उनके सामने सामाजिक और आर्थिक संकट आ गया।

यह एक सामुदायिक समरसता और धार्मिक सदभाव का एक अनूठा उदाहरण है जो सामाजिक और शैक्षणिक विकास का मार्ग दिखाता है। घर से निष्काषित होने के बाद एक उनके मित्र उस्मान शेख़ ने उनकी बहुत सहायता की और अपने ही घर पर रखा। दोनों साथ रहने लगे और अपनी शैक्षणिक संघर्ष की यात्रा को सुगम बनाने में लग गए। इसके साथ ही सावित्री बाई की एक घनिष्ठ मित्र बनी जिनका नाम फ़ातिमा बेगम शेख़ था। सावित्री बाई की प्रेरणा से फ़ातिमा बेगम शेख़ ने शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में सक्रिय भाग लेने के लिए अपनी सहमति दी। वह सावित्री बाई के साथ नार्मल पाठशाला गई और दोनों ने ही एक साथ स्नातक की डिग्री प्राप्त की। फ़ातिमा बेगम शेख़ भारत की प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका थी। साल 1849 में सावित्री बाई ने इसी अपनी मित्र फ़ातिमा बेगम शेख़ के घर पर एक अन्य बालिका पाठशाला की स्थापना की।

सावित्री बाई ने अपने पति के साथ मिलकर दो शैक्षणिक न्यासों (नेटिव मेल स्कूल, पूना और सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग द एजुकेशन ऑफ़ महार, मांग्स ) की स्थापना की। इनमें अनेकों पाठशालाओं को सम्मिलित किया गया। इसका सम्पूर्ण और प्रभावी शैक्षणिक नेतृत्व सावित्री बाई फूले ने अपनी महिला मित्र के साथ किया।

15 सितम्बर 1853 को ईसाई मिशनरी पत्रिका को एक साक्षात्कार देते हुए फूले दम्पती ने कहा कि मेरे मन में यह बात आई कि मां के कारण बच्चे में सुधार आता है, यह बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण है। इसलिए जो लोग इस देश के सुख और कल्याण के बारे में चिन्तित हैं, उन्हें निश्चित रूप से महिलाओं की स्थति पर अधिक ध्यान देना चाहिए। यदि वे चाहते हैं कि देश आगे बढ़े तो उन्हें शिक्षा (ज्ञान) प्रदान करने का हरसम्भव प्रयास करना चाहिए। इसी प्रेरक विचार के साथ मैने सबसे पहले बालिकाओं के लिए पाठशाला का शुभारम्भ किया। लेकिन मेरी जाति के भाइयों को यह पसन्द नहीं आया कि बालिकाओं को पढ़ा रही हूं और मेरे अपने पिता ने हमें घर से निकाल दिया। कोई भी पाठशाला के लिए जगह अथवा घर देने को तैयार नहीं था और इसे बनाने के लिए हमारे पास पैसे भी नहीं थे। लोग अपने बच्चों को पाठशाला भेजने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन लहू जी राघ राउत मांग और रणवा महार ने अपनी जाति के भाइयों को पढ़ने से होने वाले लाभ और सुनहरे भविष्य के बारे में बताया।

सावित्री बाई रुढ़िवादियों के बीच में आधुनिकता, तर्क, ज्ञान और शिक्षा तथा मानवीय व्यवहार की प्रतिमूर्ति थी। जब तत्कालीन समाज रुढ़िवादी परम्पराओं को ही अपना जन्म और मृत्यु समझता था उस समय तार्किक विरोध की साहसिक शैक्षणिक वीरांगना का दैवीय अवतार हुआ। सावित्री बाई महिलाओं के लिए एक वरदान के रूप में भारत को मिलीं। वे एक जबरदस्त सुधारक थीं। उन्होंने शिक्षा का महत्व समझा और समस्त भारतीय समाज को भी समझाया। उन्होंने बालिका शिक्षा और बालिकाओं का सम्पूर्ण विकास कैसे हो? वह इस बात को समझाने में सफलतम सिद्ध हुईं। आज हम सभी सावित्री बाई की 193वीं जन्म जयन्ती का आयोजन कर रहे हैं। हम सभी आज शिक्षा और विशेष रूप से महिला शिक्षा में जो भी उपलब्धि प्राप्त कर रहें है उन सभी का श्रेय सावित्री बाई को ही जाता है। आइए हम सभी अपनी अति बुद्धिवादिता का त्याग करें और सहज तथा सरल मन से शिक्षा और विशेष रूप से महिला शिक्षा के पालन–पोषण और उसके सम्पूर्ण संरक्षण में अपना–अपना गिलहरी प्रयास करें। यदि हम सभी ऐसा करते हैं तो यही सावित्री बाई जन्म जयन्ती की सामुदायिक भेंट और प्रसन्नता होगी।

प्रो(डॉ) मनोज कुमार बहरवाल प्राचार्य
सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर
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