साहित्य की विविध विधाओं में सृजन किया
कोलकाता की गलियों से देश-विदेश तक हिन्दी साहित्य का परचम फहराने वाला स्तम्भ : आलोक शर्मा के रूप में ढह गया। सोमवार की सुबह, आठ बजे के लगभग उन्होंने अन्तिम साँस ली। दोपहर बाद, नीमतल्ला महाश्मशान में उनका अन्तिम संस्कार किया गया। वे अपने पीछे बेटियों, दामादों, नातियों, नातिनों का भरापूरा परिवार छोड़ गए हैं।
अपने पहले ही काव्य संग्रह “आयाम” से उन्होंने देश भर के बड़े-बड़े साहित्यकारों का ध्यान खींचा था। उनके अपने हाथों से टंकित यह काव्य-संग्रह, राष्ट्रीय पुस्तकालय में भी कुछ समय तक प्रदर्शन का कारण रहा। उनकी लम्बी कविता-आज़ादी का हलफनामा और स्मारिका विशेष रूप से चर्चा में रही। उनकी काव्य-शैली ने अज्ञेय, धर्मवीर भारती, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे रचनाकारों से ले कर नई पीढ़ी तक को प्रभावित किया। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, डा. नामवर सिंह जैसे उनके प्रशंसकों की सूची लम्बी है।
“चेहरों का जंगल” नामक उनका विश्वपटल पर भारत का पहला संवादहीन नाटक है, जो रंगमंच की विशिष्ट धरोहर है। ऋत्विक घटक, सत्यजीत रे, शम्भू मित्रा, डा. लक्ष्मीनारायण लाल, मोहन राकेश, पी. लाल जैसे लोग भी यह नाटक सुन कर अचम्भित रह गए थे।
मनमोहन ठाकौर ने अपनी पुस्तक में आलोक जी से जुड़ी कई ऐसी बातों का उल्लेख किया था, जिसे जान कर किसी को भी आलोक जी पर गर्व हो सकता है। कई लोगों के लिए आश्चर्यजनक भी।
“एक पक्षी की हत्या” अपने समय में हिन्दी का एकमात्र बैले है। इनके अतिरिक्त, उनके “उसे क्षमा करना” (उपन्यास) “अकहानियाँ” (कहानी संग्रह), “समुद्र का एकान्त”, “महावृक्ष के नीचे” (काव्य संग्रह) आदिम ख़ामोशी की आवाज़ें (दुनिया के चुनिंदा कवियों की कविताओं का भावानुवाद) भी प्रकाशित हो चुके हैं।
भारतीय भाषा परिषद में, “महावृक्ष के नीचे” संग्रह का लोकार्पण करते हुए, डा. नामवर सिंह ने आलोक जी की कई कविताओं का उल्लेख करते हुए, उन्हें 70-80 के दशक का महत्त्वपूर्ण कवि कहा था। उनकी कहानियों के लिए राजेन्द्र यादव ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी तक कह दिया था।
बावजूद इसके, कोलकाता के हिन्दी जगत में उन्हें वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ, जिसके वे हक़दार रहे। साहित्य में राजनीतिक प्रतिबद्धता का खामियाजा यहां के हिन्दी जगत को भुगतना पड़ा है।
मेरा लगभग 42 वर्षों का सम्पर्क रहा है आलोक जी से। कोरोनाकाल में, जब से उन्होंने स्वयं को अपनी बिटिया महालक्ष्मी के घर तक सीमित कर लिया, तब से गत शनिवार तक शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो, जब हमारी फोन पर बात न हुई हो। साल भर से आयुजनित स्वास्थ्य समस्याएं उन्हें सताती रहीं। अन्ततः वे चिरनिद्रा में सो गये। हम हिन्दी के लोग उन्हें अपने सितारे के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए। यह विडम्बना ही है। भावाञ्जलि स्वीकार करें आलोक जी।
संजय बिन्नाणी