सुप्रीमकोर्ट ने मासूम के हत्यारे की सजा-ए-मौत 25 साल कैद की सजा में बदली

नई दिल्ली। सुप्रीमकोर्ट ने चार साल के एक बच्चे की हत्या, अपहरण और यौन उत्पीड़न के दोषी व्यक्ति मौत की सजा आजीवन कारावास में बदलने के साथ ही उसे 25 साल की जेल की सजा दी।

न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाले एवं मामले के दोषी शंभूभाई रायसंगभाई पढियार की सजा कम कर दी।

शीर्ष अदालत ने 2016 की निर्मम घटना के मामले में अन्य तथ्यों के अलावा माना कि दोषी अपीलकर्ता की तब उम्र महज 24 साल थी। उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था। वह एक निम्न सामाजिक-आर्थिक परिवार से था, इसलिए उसकी सजा कम कर दी गई।

पीठ ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर यह फैसला सुनाया। इसमें अंतिम बार देखे जाने की घटना भी शामिल है। साथ ही, इस बात पर भी ध्यान दिया गया कि दोषी यह स्पष्ट करने में विफल रहा कि 13 अप्रैल 2016 को जब वह बच्चे को आइसक्रीम खरीदने के लिए ले गया था तो क्या हुआ था।

पीठ ने कहा कि वर्तमान मामला ऐसा नहीं है, जिसमें यह कहा जा सके कि उसके सुधार की संभावना पूरी तरह से खारिज हो गई है, लेकिन 14 साल की सामान्य आजीवन कारावास की सजा उसके लिए बहुत अधिक असंगत और अपर्याप्त होगी।

पीठ ने कहा कि अपराध की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए बिना किसी छूट के निर्धारित अवधि के लिए कारावास की सजा अकेले ही अपराध के अनुपात में होगी और साथ ही कानूनी प्रणाली की प्रभावकारिता में जनता के विश्वास को भी खतरे में नहीं डालेगी।

पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता का मामला दुर्लभतम श्रेणी के दायरे से बाहर है। इसलिए अदालत ने स्वामी श्रद्धानंद बनाम कर्नाटक राज्य (2008) में अपनाए गए तरीके को अपनाया। नवास अलियास मुलानावास बनाम केरल राज्य (2024) से भी संकेत लेते हुए पीठ ने कहा कि हम मानते हैं कि बिना किसी छूट के 25 साल की अवधि के लिए कारावास की सजा एक उचित दंड होगी।

अपीलकर्ता पढियार ने गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें निचली अदालत द्वारा उसे दी गई मौत की सजा को बरकरार रखा गया था। निचली अदालत ने उसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302, 364 और 377 तथा यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम 2012 की धारा 4 और 6 के तहत अपराधों के लिए दोषी ठहराया था।

पीठ ने कहा कि यदि आरोपी को आखिरी बार मृतक के साथ देखा गया था और विशेष रूप से इस तरह के मामले में जब अंतिम बार देखे जाने की अवस्था और मृत्यु की घटना के बीच का समय अंतराल बहुत कम है तो आरोपी को मृतक से अलग होने के बारे में एक उचित स्पष्टीकरण देना चाहिए और दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक होना चाहिए।

इस मामले में अपीलकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि कोई डीएनए परीक्षण नहीं किया गया था। इस पर पीठ ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि डीएनए परीक्षण नहीं किया गया था और अभियोजन पक्ष के लिए ऐसा करना बेहतर होता। हालांकि, मामले के समग्र परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमें नहीं लगता कि डीएनए परीक्षण न कराना अभियोजन पक्ष के लिए घातक था।

शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले में पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में दर्शाई गई चोटों से स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि मृतक पर आक्रामक यौन हमला किया गया था। पीठ ने कहा कि आरोपी के लिंग के अग्रभाग पर चोट और रक्त समूह का मिलान तथा अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य स्पष्ट रूप से पोक्सो अधिनियम की धारा 29 और 30 के तहत अनुमान लगाने के लिए आधारभूत तथ्य हैं।

पीठ ने कहा कि बिना किसी संदेह के अपीलकर्ता द्वारा किया गया अपराध शैतानी प्रकृति का था। पीठ ने कहा कि उसने मासूम बच्चे को आइसक्रीम का लालच देकर बहकाया और चार साल के बच्चे के साथ क्रूरतापूर्वक दुष्कर्म किया और उसकी हत्या कर दी। अपीलकर्ता ने मृतक का बेरहमी से गला घोंटकर हत्या भी की। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि मौत गला घोंटने के कारण दम घुटने से हुई थी।