सबगुरु न्यूज-सिरोही (परीक्षित मिश्रा)। सिरोही के तीन सिटिंग एमएलए में से दो को हार का सामना करना पड़ा। पिण्डवाड़ा-आबू विधानसभा के एमएलए जीते तो सही लेकिन, इस बार उनके जीत का अंतर पिछली जीत से आधा रहा। लेकिन, सबसे अप्रत्याशित हार हुई संयम लोढ़ा की ओटाराम देवासी ने उन्हें 35 हजार से भी ज्यादा वोटों से हराया।
संयम लोढ़ा की ये हार 2013 की हार से भी बड़ी है। इतनी बड़ी जीत की न तो ओटाराम देवासी को आशा थी न ही खुद संयम लोढ़ा को। इस सबसे बड़ी हार की सबसे बड़ी वजह है संयम लोढ़ा का अपने उन निष्ठावान कार्यकर्ताओं की जिनके दम पर वो 2018 को चुनाव निर्दलीय होकर भी जीत तो गए लेकिन, उसके बाद उन्होंने नए कार्यकर्ताओं के लिए इन सभी पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर दिया।
इस हार का इशारा कार्यकर्ताओं ने दो बार किया एक बार पंचायत राज चुनावों में दूसरी बार उनके खुदके जन्मदिन के मौके पर सबगुरु न्यूज ने कई बार लोढ़ा के कार्यकर्ताओं में पनप रही इस हीनभावना का खुलासा भी किया लेकिन, इवेंट के शोर और लाइटों की चकाचौंध में संयम लोढ़ा ने न तो कुछ सुनना गवारा समझा न ही कुछ देखना। इसी तरह की अनदेखी की वजह से वो 2008 में हारे थे और ओटाराम देवासी 2018 में। राव सुरताण की प्रतिमा के अनावरण के दौरान वो मंच से ये कहते सुनाई दिए थे कि उन्हें इतिहास की इतनी गहरी जानकारी नहीं है।
शायद इसीलिए वो 2008 में अपनी और 2018 में ओटाराम देवासी की हार से सबक नहीं ले पाए। क्योंकि इतिहास में एक कहावत बड़ी मशहूर है कि यदि व्यक्ति इतिहास से कुछ सीखता नहीं है तो इतिहास अपने आपको दोहराता है। 1998, 2008 और 2018 के चुनाव परिणामों से नहीं सीखने के कारण इतिहास ने 2023 में फिर अपने आपको दोहरा दिया।
-पंचायत राज चुनाव से नहीं लिया सबक
किसी खराब चीज का सुधार नहीं करने पर वो और खराब होती जाती है। 2020 के पंचायत राज चुनाव में शिवगंज और सिरोही पंचायत समिति में संयम लोढ़ा के नेतृत्व में मिली जबरदस्त हार ने ये पहला इशारा दे दिया था कि उनकी स्थिति सही नहीं है। लेकिन, संयम लोढ़ा ने इसमें सुधार की कोई कोशिश नहीं की जिससे स्थिति और बिगड़ती गई। सबगुरु न्यूज ने उस समय शिवगंज और सिरोही पंचायत समिति के चुनावों की समीक्षा के दौरान संयम लोढ़ा के करीब रहे कार्यकर्ताओं का वो दर्द उजागर किया था जिसकी वजह से उन्होंने बूथों पर शकल तो दिखाई लेकिन, उतने मन से काम नहीं किया जिससे 2008 से 2018 तक किया।
जो दर्द कार्यकर्ताओं ने उस समय बताया था वही दर्द पुराने कार्यकर्ता विधानसभा चुनावों से पहले भी जताते रहे। एक कार्यक्रम में एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने उनके सामने कहा था कि आप पार्टी में नए कार्यकर्ताओं को जोड़ रहे हो लेकिन, पुराने का आप मत भूलिये। उस समय संयम लोढ़ा मुस्करा दिए थे। संयम लोढ़ा ने विधायक बनने के बाद नए लोगों को जोडऩे के चक्कर में पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करना शुरू कर दिया था। इस गलतफहमी में अपने कार्यकर्ताओं की बजाय भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को प्राथमिकताएं देेते रहे कि उन्हें अपने साथ कर लेंगे।
पंचायत राज चुनावों में टेबल्स पर उनके साथ 20 सालों से जुड़े कार्यकर्ता भी यही बोलते हुए टेबलों से नहीं हिले कि हमारे मतदाता लाने का भी क्या फायदा इन्हें काम तो भाजपा और संघ वालों का ही करना है। संयम लोढ़ा के जन्मदिन पर किए गए रक्तदान शिविर के दौरान भी दूरस्थ गांवो से आए कार्यकर्ता यही दर्द बयां करते दिखे। इसका मतलब साफ था कि पंचायत राज चुनाव की जबरदस्त हार के बाद भी संयम लोढ़ा ने अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के प्रति रवैये में कोई सुधार नहीं किया था। 1857 की क्रांति के बाद जिस कांग्रेस को ऐसे मंच के रूप में स्थापित किया गया कि जनता के मन में पनप रहे असंतोष के लिए वाल्व का काम करेगा उसी कांग्रेस के नेता कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के असंतोष का गुबार निकालने के लिए वाल्व व्यवस्था का इंतजाम नहीं कर सके।
-तीन बड़ी गलतियां पड़ गई भारी
लोकतांत्रिक इतिहास गवाह है कि सिर्फ विकास का झुनझुना बजाने से कोई नहीं जीतता। संयम लोढ़ा ने इससे भी सबक नहीं लिया। संयम लोढ़ा की तीन बड़ी गलतियों ने उन्हें सिरोही विधानसभा की सबसे बड़ी हार से रूबरू करवाया।
कार्यकर्ताओं की मानें तो उन्होंने मतदाताओं और अपने बीच से कार्यकर्ताओं को हटाने की नीति पर चलना शुरू कर दिया था। इसके लिए सरकारी विभागों में उनके कार्यकर्ताओं के द्वारा ले जाए जाने वाले काम होते नहीं थे। उन्हें संयम लोढ़ा की सिफारिश का सुझाव दिया जाता था।
कार्यकर्ताओं के द्वारा काम नहीं करवा पाने से उनका मोरल डाउन हुआ। ऐसे कई शिकायतें कार्यकर्ता करते नजर आए जिसमें उनके जाने पर काम नहीं होते लेकिन, प्रतिद्वंद्वी संगठन के लोगों के व्यक्ति के द्वारा वही काम संयम लोढ़ा के पास ले जाने पर काम हो जाता। इससे कार्यकर्ताओं का अपने ही क्षेत्र के लोगों के बीच ग्लानि झेलनी पड़ी। जब वोट लाने के लिए उन्हें कार्यकर्ताओं की मदद की जरूरत हुई तो वो पिछले वायदे नहीं निभा पाने की शर्मिंदगी के कारण मतदाताओं के बीच जाने से बचते रहे।
खुदको राज्य स्तरीय नेता के रूप में स्थापित करने के लिए कथित रूप से उन्होंने सिरोही की व्यवस्था अपने पुत्र के हवाले की। उन्होंने अपनी युवा टीम बनाई जिसमें एनएसयूआई को प्राथमिकता दी और उन्हें वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से ज्यादा प्राथमिकताएं मिलने लगी। पुराने कार्यकर्ताओं की माने तो ये स्थिति बूथ लेवल तक रही जिसके कारण पुराने कार्यकर्ताओं ने सम्मानजनक दूरी बनाना में ही भलाई समझी। भाजपा सरकारी विभागों में उनके पुत्र के हस्तक्षेप के आरोप लगाती रही। पहली बार भाजपा को पत्रकार वार्ताओं और मचों से लोढ़ा पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने को मौका मिला जो उनके पिछले 20 साल के कार्यकाल में कभी नहीं लगा था।
संयम लोढ़ा के कार्यकाल की तीसरी और सबसे बड़ी गलती रही पंचायत राज विभाग नगर निकाय, चिकित्सा विभाग और शिक्षा विभाग में ऐसे अधिकारियों को संरक्षित रखना जो उनकी अनुमति के बिना पत्ता भी नहीं हिलाने की मानसिकता पाले हुए थे। ये चारों ही ऐसे विभाग हैं जिसका जनता से सीधा जुड़ाव होता है और लोढ़ा के कार्यकाल में इन विभागों में लगे अधिकारियों और कार्मिकों ने जनता में ये संदेश पहुंचा दिया था कि लोढ़ा की अनुमति के बिना कोई काम नहीं करेंगे। इन अधिकारियों ने ग्राम पंचायतों तक ये मिसफीडिंग फैला दी थी। हर कोई इतना सक्षम नहीं था कि वो उनके शिवगंज में लगने वाले दरबार मे पहुंचे या फोन कर लेवे।
इसकी वजह से सिरेाही विधानसभा में गवर्नेंस पूरी तरह से चरमरा चुकी थी। जो संयम लोढ़ा 2018 से पहले जनता के बीच जनता जाकर जनता दरबार लगाते थे चुनाव जीतने के बाद उन्होंने आबूरोड में जाकर जनता दरबार लगाया लेकिन, इन पांच सालों में सिरोही विधानसभा में किसी सार्वजनिक स्थान पर खुद पहुंचकर जनता दरबार लगाकर लोगों और अपने बीच की दूरी को पाटने की कोशिश नहीं की। वैसे वो ये दलील दे सकते हैं कि वो सिरोही सर्किट हाउस और शिवगंज में अपने घर पर मिलते थे। लेकिन, जनता ने उन्हें चुना ही इसलिए था कि वो उनके बीच में जाकर समस्याएं समझते और सुलझाते थे। इन अव्यवथाओं को भी सबगुरु न्यूज ने कई बार प्रकाशित किया। लेकिन, फिर इवेंट के शोर और चकाचौंध में इस पर ध्यान नहीं दिया।
यही विभाग इस बात की मूल वजह रहे कि पहले राउण्ड से लेकर 21 वें राउण्ड तक किसी भी राउण्ड में वो ओटाराम देवासी से आगे नहीं निकल पाए। वैसे इस हार के बाद ट्विटर पर सिरोही विधानसभा के लोगों के सुख दुख में हमेशा साथ होने की मंशा जताकर उन्होंने ये संदेश दे दिया कि वो इतनी बड़ी हार के बाद भी हारे नहीं हैं कमबैक करने को तैयार हैं। ऐसे में एक बार फिर ओटाराम देवासी का ये कार्यकाल उसी तरह चुनौतिपूर्ण रहने वाला है जैसा 2008 से 2018 के बीच रहा था।