जयपुर। राजस्थान हाईकोर्ट ने एक रेफरेंस को तय करते हुए यह साफ कर दिया है कि जमानत याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान पीड़ित एवं परिवादी को पक्षकार बनाने की बाध्यता नहीं हैं।
न्यायमूर्ति अरूण भंसाली एवं न्यायमूर्ति पंकज भंडारी की खंडपीठ ने जमानत याचिकाओं में शिकायतकर्ता एवं पीड़ित को पक्षकार बनाए जाने को लेकर दो मत होने पर भेजे गए रेफरेंस को तय करते हुए मंगलवार को यह फैसला सुनाया। हालांकि न्यायालय ने कहा कि पीड़ित एवं परिवादी को जमानत याचिकाओं पर सुना जाना चाहिए। लेकिन उसे पक्षकार बनाने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए।
मामले से जुड़े अधिवक्ता प्रेमचंद बैरवा ने बताया कि यह पूरा मामला एक जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान शुरू हुआ था। हाईकोर्ट के न्यायाधीश वीरेन्द्र कुमार की बैंच ने गत आठ अगस्त को आदेश दिया था कि जमानत याचिका में पीड़ित एवं परिवादी को पक्षकार बनाया जाना चाहिए।
इस आदेश के बाद हाई कोर्ट प्रशासन ने 15 सितम्बर को एक स्टैंडिंग ऑर्डर निकालकर मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक लगने वाली प्रत्येक जमानत याचिका में पीड़ित व परिवादी को पक्षकार बनाना अनिवार्य कर दिया था। लेकिन जब एक जमानत याचिका जस्टिस अनिल उपमन के यहां लगी तो उन्होंने जस्टिस वीरेन्द्र कुमार के आदेश से विपरीत व्यू लेते हुए यह मामला 27 सितम्बर को हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रेफर कर दिया। इस पर हाई कोर्ट की खंडपीठ ने 12 दिसम्बर को सुनवाई पूरी करते हुए फैसला सुरक्षित रखा लिया था।
हाई कोर्ट बार के अध्यक्ष प्रह्लाद शर्मा ने बताया कि न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी के जिन प्रावधानों के तहत मजिस्ट्रेट कोर्ट, सैशन कोर्ट और हाई कोर्ट में जमानत याचिका लगाई जाती हैं। उसमें भी कही पीड़ित और परिवादी को पक्षकार बनाने की बाध्यता नहीं हैं वहीं जगजीत सिंह वर्सेज आशीष मिश्रा के मामले में भी सुप्रीमकोर्ट ने यह नहीं कहा है कि पीड़ित व परिवादी को पक्षकार बनाना जरूरी हैं। उच्चतम न्यायालय ने इतना जरूर कहा है कि मामले के हर स्तर पर पीड़ित व परिवादी को सुना जाना चाहिए।