श्रीगणेश चतुर्थी के साथ-साथ श्री गणेशोत्सव के दिनों में गणेश तत्व पृथ्वी पर सामान्य से 1000 गुना अधिक सक्रिय होता है। इस दौरान भगवान श्रीगणेश की पूजा करने से गणेश तत्व का अधिक लाभ मिलता है। इस दिन श्री गणेशाय नमः का अधिक से अधिक नामजप करना चाहिए।
श्री गणेश चतुर्थी पर रखा जाने वाला व्रत
श्री गणेश चतुर्थी पर रखा जाने वाला व्रत सिद्धिविनायक व्रत के नाम से जाना जाता है। यह व्रत सभी परिवारों में किया जाता है। यदि सभी भाई एक साथ रहते हों अर्थात उनके द्रव्यकोश (खजाना) और चूल्हा एक साथ हों तो एक साथ पूजन करना चाहिए अन्यथा किसी कारणवश द्रव्यकोश और चूल्हा अलग-अलग हो जाएं तो उन्हें अपने-अपने घर में अलग-अलग गणेश प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए। जिन परिवारों में केवल एक ही गणपति स्थापित करने की परंपरा है, वहां जिस भाई के मन में भगवान के प्रति अधिक भक्ति हो, उसे अपने घर में गणपति बिठाना चाहिए।
नई मूर्ति बिठाने का उद्देश्य
यदि पूजाघर में गणपति हों तो भी गणपति की नई मूर्ति लानी चाहिए। श्री गणेश चतुर्थी के दौरान गणेश लहरियां भारी मात्रा में पृथ्वी पर आते हैं। यदि इनका आह्वान नियमित पूजन की जाने वाली मूर्ति के रूप में किया जाए तो इसमें अधिक शक्ति होगी। पूरे वर्ष किसी मूर्ति की पूजा शास्त्रोक्त पद्धति से कर्मकांड के नियमों का पालन करते हुए करना कठिन है; इसलिए गणेश तरंगों का आह्वान करने के लिए एक नई मूर्ति का उपयोग किया जाता है और फिर मूर्ति को विसर्जित कर दिया जाता है।
श्री गणेश चतुर्थी पर पूजन करने वाली मूर्ति कैसी होनी चाहिए?
ऐसी शास्त्र विधि है कि मूर्तियां मिट्टी या शाडू मिट्टी की बनानी चाहिए। अन्य सामग्रियों (जैसे प्लास्टर ऑफ पेरिस, पेपर पल्प) से मूर्तियां बनाना अधर्मशास्त्रीय होने के साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से भी हानिकारक है। मूर्ति की ऊंचाई अधिकतम एक फुट से डेढ़ फुट तक होनी चाहिए। मूर्ति शास्त्र के अनुसार मेज पर बैठी हुई, बायीं सूंड वाली तथा प्राकृतिक रंगों से रंगी हुई मूर्ति बनानी चाहिए। परंपरा या पसंद के अनुसार गणेश प्रतिमा लाने की अपेक्षा धर्म शास्त्र के अनुसार गणेश प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए।
शास्त्र के अनुसार विधि, रूढ़ि व अवधि
भाद्रपद शुद्ध चतुर्थी को मिट्टी से गणपति जी की प्रतिमा बनाई जाती है। शास्त्रोक्त प्रथा है कि इसे बाएं हाथ पर रखना चाहिए तथा सिद्धिविनायक के नाम से प्राण प्रतिष्ठा एवं पूजन करने के पश्चात तुरंत विसर्जित कर देना चाहिए परन्तु मनुष्य, उत्सवधर्मी होने के कारण, इस से संतुष्ट नहीं होता; इसलिए उन्होंने डेढ़, पांच, सात अथवा दस दिन तक श्रीगणपति का उत्सव मनाना शुरू कर दिया।
कई (बुजुर्ग) गणपति के साथ गौरी का विसर्जन कराते हैं। यदि किसी के कुलाचार में गणपति पांच दिन के हैं और वे इसे डेढ या सात दिन का करना चाहते हों तभी वे ऐसा कर सकते हैं। इसके लिए किसी आधिकारिक व्यक्ति से पूछना आवश्यक है। श्री गणेश विसर्जन हमेशा की तरह पहले, दूसरे, तीसरे, छठे, सातवें या दसवें दिन किया जाना चाहिए।
मूर्ति को आसन पर स्थापित करना
पूजा से पहले जिस पीढ़े पर मूर्ति स्थापित करनी होती है उस पर चावल (अनाज) रखकर मूर्ति को आसन पर स्थापित किया जाता है। अपनी परंपरा के अनुसार चावल या धान का एक छोटा ढेर बनाया जाता है। मूर्ति में गणपति का आह्वान कर उनकी पूजा करने से मूर्ति में शक्ति उत्पन्न होती है। इस शक्ति से चावल भारत हो जाता है। यदि किसी तम्बूरे की एक ही आवृत्ति की दो तारें हों और एक से एक स्वर निकाला जाए तो दूसरी डोरी से भी वही स्वर निकलेगा।
इसी प्रकार, मूर्ति के नीचे रखे चावल में शक्ति से स्पंदन निर्माण होते हैं, वही चावल घर के चावल के संग्रह में रखने से उस चावल में भी शक्ति के स्पंदन निर्माण होते हैं। इस प्रकार से शक्ति से भारित हुए चावल पूरे वर्ष तक प्रसाद के रूप में खाए जाने से आध्यात्मिक स्तर पर लाभ मिलता है।
मूर्ति को आसन पर स्थापित करने से पूर्व ध्यान में रखने योग्य सूत्र
श्री गणेश चतुर्थी की पूजा की मूर्ति संभव हो तो एक दिन पहले लाकर रखना चाहिए। भगवान गणेश की मूर्ति घर लाने के लिए घर के कर्ता पुरुष को अन्य सदस्यों के साथ जाना चाहिए। मूर्ति लाने वाले व्यक्ति को हिंदू पोशाक अर्थात धोती कुर्ता अथवा कुर्ता पायजामा इत्यादि सात्विक वस्त्र धारण करना चाहिए। उसे सिर पर टोपी भी पहननी चाहिए। मूर्ति लाते समय मूर्ति पर रेशम, सूती या खादी के स्वच्छ वस्त्र डालना चाहिए। मूर्ति घर लाते समय मूर्ति का मुख लाने वाले की ओर तथा पीठ विपरीत दिशा में होनी चाहिए। मूर्ति के सामने वाले भाग से सगुण तत्त्व, और पीठ से निर्गुण तत्त्व प्रक्षेपित होता है।
मूर्ति हाथ में लेने वाला पूजक होता है। वह सगुण के कार्य का प्रतीक है। मूर्ति का मुख उसकी ओर होने से उसे सगुण तत्व का लाभ होता है, तथा अन्यों को निर्गुण तत्त्व का लाभ होता है। भगवान गणेश की जय-जयकार और भावपूर्ण मंत्रोच्चारण के साथ मूर्ति को घर लाना चाहिए। घर की दहलीज के बाहर खड़े होकर घर की सुहागन स्त्री ने मूर्ति लाने वाले के पैरों पर पहले दूध और बाद में पानी डालना चाहिए। घर में प्रवेश करने से पहले मूर्ति का मुख सामने की ओर होना चाहिए। इसके बाद मूर्ति का औक्षण करके मूर्ति को घर में लाना चाहिए।
सजाए गए पीढ़े पर थोड़ा सा अक्षत रखकर उस पर मूर्ति स्थापित करें। यदि सजावट पूरी करनी हो तो मूर्ति को किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके सजावट पूरी कर लेनी चाहिए। पीढ़े पर मूर्ति स्थापित करने के बाद इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मूर्ति हिले नहीं या मूर्ति को कोई नुकसान न पहुंचे। मूर्ति पर कपड़ा या रूमाल रखकर ढक दें। यदि मूषक की मूर्ति अलग हो तो उसे भी सुरक्षित रखना चाहिए। मूर्ति का मुख इस प्रकार रखना चाहिए कि उसका मुख पश्चिम दिशा की ओर रहे, यदि ऐसा संभव न हो तो पूजा करने वाले को इस प्रकार बैठना चाहिए कि पूजा करते समय उसका मुख दक्षिण या पश्चिम दिशा की ओर न हो।
यदि मूर्ति का मुख पूर्व या उत्तर की ओर है तो पूजा करने वाले को मूर्ति के बाईं ओर समकोण पर बैठना चाहिए, यानी पूजा करने वाले का मुख उत्तर या पूर्व की ओर होगा। मूर्ति का मुख दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए। दक्षिण की ओर मुख आमतौर पर उग्र देवताओं का होता है, जैसे काली, हनुमान, नरसिम्हा आदि। हम जो गणपति की मूर्ति लाते हैं वह उग्र नहीं बल्कि प्रसन्न या शांत होती है इसलिए संभवतः उसे दक्षिण की ओर मुख करके नहीं रखना चाहिए।
मध्य पूजा विधि
जब तक गणपति घर पर हैं, तब तक प्रतिदिन सुबह और शाम को आरती और मंत्र पुष्पांजलि कहकर उसी तरह से गणपति की पूजा करनी चाहिए जैसे हमेशा उनकी पूजा करते हैं। गणेश प्रतिमा की स्थापना के बाद रोजाना पंचोपचार पूजा करनी चाहिए।
उत्तर पूजा
यह पूजा गणपति के विसर्जन से पहले की जाती है। नीचे दिए गए विशिष्ट मंत्र के अनुसार पूजा करनी चाहिए – 1. आचमन, 2. संकल्प, 3. चन्दनार्पण, 4. अक्षतार्पण, 5. पुष्प अर्पण, 6. हरिद्रा (हल्दी)-केसर नैवेद्य, 7. दूर्वार्पण 8. धूप-दीप दर्शन एवं 9. प्रसाद इसके बाद आरती करनी चाहिए और मंत्र पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिए। सभी को गणपति के हाथ पर अक्षत चढ़ाना चाहिए और मूर्ति को दाहिने हाथ से घुमाना चाहिए।
विसर्जन
उत्तर पूजा के बाद मूर्ति को जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है। विसर्जन के लिए जाते समय गणपति के साथ दही, पोहा, नारियल, मोदक आदि शिदोरी चढ़ानी चाहिए। जलाशय के पास फिर से आरती करनी चाहिए और मूर्ति को शिदोरी के साथ पानी में छोड़ देना चाहिए।
संदर्भ : सनातन संस्था के ग्रंथ गणपति